गर्भ से ही निकला हूँ करके तैयारी


जो प्रेम करता है पिता से,
वो होता है विलक्षण – प्रलयंककारी।
श्री राम, परशुराम, मेघनाथ, भीष्म, कर्ण,
अब है अभिमन्युँ की बारी।

बस पिता ही पूज्य हैं इस जीवन में,
बस वो ही विराजमान हैं ह्रदय में.
स्वीकार है, हर जख्म – हर घाव,
पुरस्कार है मौत भी इस पथ पे.

कितने भी हो आप भयंकर योद्धा,
महारथी और चकर्वर्ती,
क्या बांधेंगे मुझे इस चक्रव्यूह में?
गर्भ से ही निकला हूँ करके इसी दिन की तैयारी।
जो प्रेम करता है पिता से,
वो होता है विलक्षण – प्रलयंककारी।

 

परमीत सिंह धुरंधर

अभिमन्यु संग अर्जुन के


असहनीय पीड़ा है जीवन बिन पिता के,
मत लिखो ऐसा कुरुक्षेत्र फिर ए दाता,
की अभिमन्यु हो बिन अर्जुन के.
समर में किसे हैं अब भय प्राणों का,
लेकिन तीरों को और बल मिलता,
जो होता अभिमन्यु संग अर्जुन के.

 

परमीत सिंह धुरंधर

पिता-पुत्र की जोड़ी


वो पिता-पुत्र की जोड़ी,
बड़ी अलबेली दोस्तों।
एक अर्जुन,
एक अभिमन्युं दोस्तों।
एक ने रौंदा था,
भीष्म को रण में.
एक ने कुरुक्षेत्र में,
कर्ण-द्रोण को दोस्तों।

परमीत सिंह धुरंधर

सुभद्रा-अभिमन्यु


चंचल मन, कोमल तन,
बालकपन में अभिमन्युं।
अभिमन्युं-अभिमन्युं।
माँ का दूध पीते – पीते,
पहुंचा रण में अभिमन्युं।
अभिमन्युं-अभिमन्युं।
चारों तरफ सेनाएं सुसज्जित,
बीच में अकेला अभिमन्यु।
अभिमन्युं-अभिमन्युं।
द्रोण-कर्ण के तीरों को,
तिनकों सा उड़ता अभिमन्युं,
अभिमन्युं-अभिमन्युं।
कर्ण के पूछने पे परिचय, बोला
माँ मेरी सुभद्रा, मैं उसका अभिमान-अभिमन्यु।
अभिमन्युं-अभिमन्युं।
एक अर्जुन से बिचलित कौरव,
के समुख काल सा धुरंधर अभिमन्युं।
अभिमन्युं-अभिमन्युं।

अभिमन्यु


मैं अपनी तीरों से,
नभ में तेरा नाम लिखूंगा।
हर एक पल में मेरी माँ,
तुझे प्रणाम लिखूंगा।
द्रोण-कर्ण भी देख लें,
माँ शौर्य तेरे दूध का.
जब मैं धुरंधर उनकी तीरों से,
चिड़िया बनाके उड़ाऊंगा।
ना यूँ कम्पित हो माँ,
भविष्य की कल्पना से.
मैं लाल तेरा हूँ माँ,
तेरा ही कहलाऊंगा।
द्रोण के चक्रविहू को तोड़,
वहाँ पुष्प खिलाऊंगा।
और उन पुष्पों से माँ,
रोज तेरा आँगन सजाऊंगा।

माँ का लाल


तेरे वास्ते ए माँ, मैं लौट के हाँ आऊंगा,
न तू उदास हो, मैं रण जीत के ही लौटूंगा।
आज समर में देख ले, ज़माना भी बढ़ के,
क्या द्रोण, क्या कर्ण,
सबको परास्त कर के ही लौटूंगा।
तेरा दूध ही मेरे शौर्य का प्रतीक है,
और क्या चाहिए, जब मुझपे पे तेरा आशीष है.
ना कृष्णा का, ना अर्जुन का,
मैं बस परमीत, लाल माँ तेरा कहलाऊंगा।

भीष्म-अभिमन्यु


मूंद रही आँखे,
देख रही थी,
पिता को आते.
की पिता आके,
बचा लेंगें.
अंतिम क्षणों तक,
इस उम्मीद में,
लड़ा अभिमन्यु,
पिता-पुत्र का रिश्ता,
कुछ ऐसा ही है,
एक तरफ भीष्म गिरें हैं,
तो एक तरफ जूझ,
रहा है, परमीत, अभिमन्यु.

मैं ही अर्जुन हूँ


ना मैं देवो को मैं मानता,
ना मैं गुरुवों को जानता,
मैं रणभूमि तक आ गया हूँ,
बस पिता को ही मैं पूजता,
तो,
करों सामना मेरी तीरों का,
की मैं ही अर्जुन हूँ.
ना तन को देखो, ना कद को,
की नशों में दौड़ता,
मैं वो ही ख़ून हूँ.
माँ के गर्भ में ही,
पढ़ लिया था पाठ,
मैने अपने पिता से.
करों सामना मेरे बल का,
मैं ही श्वेतवाहन हूँ.
न उत्तरा का हूँ मैं,
ना मैं सुभद्रा का,
ना ही मैं हूँ कृष्णा का,
ना मैं बलराम का,
नाता मेरा बस एक ही है,
परमीत, की मैं ही अर्जुन हूँ,
हाँ, मैं ही अर्जुन हूँ.

मैं उस पिता का पुत्र हूँ


मैं उस पिता का पुत्र हूँ,
जो धरती पे किसी से हारा नहीं,
मैं उस पिता का पुत्र हूँ,
जो उर्वशी पे भी डिगा नहीं।
खडग उठा लिया है जब,
तो करो मेरा सामना महारथियों,
मैं उस पिता का पुत्र हूँ,
जिसका तीर कभी चूका नहीं।
शिशु समझ के मौत का भय,
किसको दिखा रहे हो,
मैं उस पिता का पुत्र हूँ,
जो रण में शिव से भी डरा नहीं।
तुम उन्माद में हो अपने शौर्य के,
मैं जवानी में चढ़ के आया,
रौंद के हर दिशा से जाऊँगा तुम्हे,
ये अपनी माँ से मैं कह के आया।
मैं उस पिता का पुत्र हूँ,
जिसका रथ कभी रुक नहीं।
मैं उस पिता का ‘परमीत’ पुत्र हूँ,
जिसका धवज कभी झुका नहीं।

अभिमन्यु


काश तुम होते हमारे साथ पिता जी,
तो हम यूँ अकेले न होते।
इस मोड़ पे जिंदगी के,
यूँ तन्हा-तन्हा न होते।
अभिमन्यु बढ़ा है,
तुम्हारी शान में,
मैं रहूँ या न रहूँ,
कल इस मैदान में,
जग करता रहेगा,
तुम्हारा गुणगान पिता जी,
काश तुम होते हमारे साथ पिता जी।