क्या लिखा है उसने मेरी लकीर में?


हम समंदर हैं दोस्तों
खारे रह गए इस जमीन पे.
कुछ मिला भी नहीं जिंदगी में
बस मांगते रह गए हम नसीब से.

उनसे इतनी थी हाँ मोहब्बत
हर दर्द सह गए हम ख़ुशी से.
कुछ मिला भी नहीं जिंदगी में
बस मांगते रह गए हम नसीब से.

वो जिनके लिए हम बने थे
वो खो गए कहीं इस भीड़ में.
कुछ मिला भी नहीं जिंदगी में
बस मांगते रह गए हम नसीब से.

खुदा भी नहीं जानता है
क्या लिखा है उसने मेरी लकीर में?
कुछ मिला भी नहीं जिंदगी में
बस मांगते रह गए हम नसीब से.

Rifle Singh Dhurandhar

The day I turned 18


The day I turned 18
The world was changed
I started enjoying the mirror more than the wind.
I understood the relationship
Of the flower and bumblebee
Without reading the chapter on pollination.

I loved the change I was witnessing
Inside and outside of my body
Everything was like a slow music
Or like a water stream
Until I was forced on bed
To teach what love is.

Rifle Singh Dhurandhar

परफेक्ट प्यार


उम्र भर जो भागी एक परफेक्ट प्यार को
अब लिख रहीं हैं की प्यार परफेक्ट नहीं होता।
इससे बड़ी प्यास क्या होगी जीवन में?
प्यार पाकर भी कोई प्यार नहीं पाता।

पिता की गोद छोड़कर जो भागी थी प्यार में
उसके चार -चार बच्चों की माँ बनके भी आनंद नहीं आता.
इससे बड़ी प्यास क्या होगी जीवन में?
प्यार पाकर भी कोई प्यार नहीं पाता।

जुल्फों में बांधकर जिसने कइयों को डुबाया है
अजब है उस कातिल को अब क़त्ल का मजा नहीं आता.
इससे बड़ी प्यास क्या होगी जीवन में?
प्यार पाकर भी कोई प्यार नहीं पाता।

ये शहर छपरा सभी का है सिर्फ मेरा ही नहीं
मगर हर किसी के नाम में छपरा नहीं होता।
इससे बड़ी प्यास क्या होगी जीवन में?
प्यार पाकर भी कोई प्यार नहीं पाता।

परमीत सिंह धुरंधर

किसके लिए?


अजीब दास्ताँ है ये, खुद हमारे लिए
ये शहर मेरा नहीं तो मुस्करायें किसके लिए?

दफ़न कर चूका हूँ जो ख्वाइशें कहीं
उन्हें सुलगाऊँ भी तो अब किसके लिए?

वो छोड़ गयीं मुझे एक ही रात के बाद
अब घर बसाऊं भी तो किसके लिए?

यादों का गठबंधन तोड़े कैसे पिता?
जब तुम ही नहीं तो जीयें किसके लिए?

खुदा भी जानता है की हम है अकेले
खुशियाँ बाटूँ भी तो किसके लिए?

जमाने से दुश्मनी है मेरी सदियों से
जमाने से बना के रखूं भी तो किसके लिए?

मुबारक हो हिन्द, जिन्हे मंदिर – मस्जिद चाहिए
मैं सजदा करूँ भी तो अब किसके लिए?

परमीत सिंह धुरंधर

ईसामसीह बोले रामचंद्र से


29 नवंबर से 16 दिसंबर तक
आते – आते
सत्ता बदल गयी.
ईसामसीह बोले रामचंद्र से
लड़की तो Crassa पे भारी पड़ गयी.

ऐसे पलटी
वादे करके, सपने दिखा के
ये तो हमारी सोच से भी
आगे निकल गयी.
ईसा बोले रामचंद्र से
लड़की तो Crassa पे भारी पड़ गयी.

धीरज से गंभीर
मुस्करा कर
फिर बोले रामचंद्र जी, ईसामसीह से
कब नारी हुई है किसी की?
अतः लड़की Crassa पे भारी पड़ गयी.

परमीत सिंह धुरंधर

छुट्टियों में स्कूल आने का बहाना दे गए वो


दर्द से भरी है जिंदगी
और कुछ नहीं पर हौसला दे गए वो.

ये शहर ही है ऐसा की हर कोई है अकेला
पर किताबों में छुपाकर पता दे गए वो.

उम्र ही ऐसी, क्या वादा और क्या इरादा?
पर छुट्टियों में स्कूल आने का बहाना दे गए वो.

ये शहर ही है ऐसा की हर कोई है अकेला
पर किताबों में छुपाकर पता दे गए वो.

परमीत सिंह धुरंधर

उनके मुख – मंडल पे सयुंक्ता का सौम्य था


वो नजरों के इसारें,
किताबों के बहाने,
वो सखियों संग चहकना।
वो देर तक प्र्रांगण में रुके रहना,
टूटे चपल के बहाने।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, चौहान सा,
और उनके मुख पे, सयुंक्ता का मान था.

वो कई – कई हफ्ते गुजर जाना,
बिना मिले।
और मिलने पे,
बिना संवाद के,पल का गुजर जाना।
वो उनका बिना पसीने के,
मुख को दुप्पटे से पोछना।
और आते – जाते लोगो के मुख को,
आँखों से तकना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, चौहान सा,
और उनके मुख – मंडल पे चाँद सक्क्षात था.

हरबराहट- घबराहट में,
उनके अंगों से मेरा छू जाना।
एक बिजली कोंध जाती थी,
जिसपे उनका पीछे हट जाना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक दौर था,
जिसका नायक मैं, उग्र था चौहान सा,
और उनके मुख – मंडल पे सयुंक्ता का सौम्य था.

वो रक्त-रंजीत मुख पे,
नैनों का झुक जाना।
वो कम्पित – साँसों के प्रवाह से,
उनके वक्षों का उन्नत हो जाना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, व्याकुल चौहान सा,
उनके मुख – मंडल पे, भय से ग्रसित प्रेम – गुहार था.

 

यादे ह्रदय को छत – विछत कर देती हैं,
लेकिन यादें सुखद हो तो, गम मिटाने का काम करती हैं.

 

परमीत सिंह धुरंधर

एक गुलाब


कैसे कहें तुमसे,
वो आँखों की बात।
तुम दूर रहती हो.
पर लगती हो बड़ी ख़ास.
वो सीधे -सीधे तुम्हारा,
किताबों को देखना।
वो सखियों के बीच,
बैठे – बैठे उनको पढ़ना।
मुझे याद है अपनी,
हर वो मुलाक़ात।
तुम दूर- दूर रहती थी.
पर लगती थी बड़ी ख़ास.
वो सोमवार को तुम्हारा,
खुली जुल्फों में आना.
वो मंगलवार को,
मेरी रहे काट जाना।
वो बुधवार को प्रैक्टिकल,
में मेरे मेढक का लहराना।
वो तुम्हारे अधरों पे,
सागर की मुस्कान का उभर आना.
मुझे अब तक याद है,
वो शोख तुम्हारा अंदाज।
तुम दूर- दूर रहती थी.
पर लगती थी बड़ी ख़ास.
प्रिये, इस जीवन में अब तो,
हो नहीं सकता अपना मिलन हाँ.
जाने कैसे बुझेगी अब,
मेरे विरहा की ये आग.
बस एक ही तमन्ना है,
मेरी मौत पे आना तुम जरूर,
बस रखने एक गुलाब।
तुम दूर- दूर तो रहोगी,
पर लगोगी फिर भी बड़ी ख़ास.

परमीत सिंह धुरंधर