हिन्द पे नरेंद्र फिर तुम्हारा राज हो


वसुंधरा पे वीर वही,
जो नित्य – नया प्रमाण दे.
हिन्द की इस धरती पे,
नरेंद्र फिर तुम्हारा राज हो.

एक नए युग का उदय हुआ,
जब नरसिंह तख़्त पे विराज हुए.
जागी फिर सोइ भारत की आत्मा
जब नरेंद्र तुम दहाड़ उठे.

हिन्द की इस धरती पे
फिर से वही दहाड़ हो.
हिन्द की इस धरती पे,
नरेंद्र फिर तुम्हारा राज हो.

परमीत सिंह धुरंधर

फिर बिहार देखिये


शहर देखिये, सुलतान देखिये,
अगर इतिहास देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

शर्म देखिये, सौंदर्य देखिये,
अगर यौवन देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

बलवान देखिये, पहलवान देखिये,
अगर पौरष देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

कलियाँ देखिये, कांटे देखिये,
अगर फूल देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

मुंबई देखिये, दिल्ली देखिये,
अगर किसान देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

काश्मीर देखिये, कन्याकुमारी देखिये,
अगर भारत देखना है तो,
फिर बिहार देखिये।

गीता पढ़िए, कुरान पढ़िए,
अगर इंसानियत पढ़नी है तो,
फिर बिहार देखिये।

नेहरू पढ़िए, गांधी पढ़िए,
देश को जानना है तो,
फिर राजेंद्र बाबू पढ़िए।

 

परमीत सिंह धुरंधर

शहादतों को सरहदों में मत बांटों


शहादतों को सरहदों में मत बांटों,
भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद,
भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे,
ना की हिन्दू कौम के लिए.
सुभाषचंद्र बोस की लड़ाई ब्रिटिशों से थी,
ना की मुस्लिमों से.
फिरकापरस्त है वो लोग जो, धर्म और क्षेत्र में,
बाँट रहे हैं देशभक्तो को.
अस्फाकुल्लाह खान हों या टीपू सुलतान,
सब भारत की शान हैं.
उनकी शहादत भारत के लिए थी,
ना की मजहब और अपने कौम के लिए.

 

परमीत सिंह धुरंधर

स्त्री


सत्य की पूजा नहीं होती,
धर्म की चर्चा नहीं होती।
वेदों को जरूरत नहीं,
जिन्दा रहने के लिए,
की मनुष्य उसे पढ़ें।
वेदों की उत्पत्ति,
मनुष्यों से नहीं होती।
तैमूर, चंगेज, क्या?
सिकंदर भी थक गया था,
यहाँ आके.
ये हिन्द है,
यहाँ तलवारो के बल पे,
तकदीरें सुशोभित नहीं होती।
वो जितना भी सज ले,
तन पे आभूषण लाद के.
मगर, यहाँ, बिना शिशु को,
स्तनपान कराये,
नारी कभी पूजित नहीं होती।
घमंड किसे नहीं,
यहाँ सृष्टि में.
बिना अहंकार के,
सृष्टि भी शाषित नहीं होती।
तीक्ष्ण बहुत है तीर मेरे,
मगर बिना तीक्ष्ण तीरों के,
शत्रु कभी पराजित नहीं होती।
मुझे संतोष है,
की वो वेवफा निकली।
क्यों की बिना बेवाफ़ाई के,
कोई स्त्री कभी परिभाषित नहीं होती।

 

परमीत सिंह धुरंधर

आरजु – ए- वतन


धरती पे, आसमां पे,
आरजु – ए- वतन रखता हूँ.
चाहे जहाँ भी रहूँ,
भोजपुरी को अपनी माँ कहता हूँ.

 

परमीत सिंह धुरंधर

की जब तक हैं गुरु गोबिंद सिंह जी


भारत को जीत कर भी,
तुम कभी जीत नहीं पाओगे।
हम राजपूतों – जाट -मराठों को,
तुम कभी बाँध नहीं पाओगे।
तुम चाहे तोप बरसा लो,
या हमपे हाथी दौड़ा लो.
रणभूमि में तुम हमें,
कभी पछाड़ नहीं पाओगे।
तानसेन के छंदों पे,
जितना भी वीर बनले अकबर।
राणा की बरछी का,
सामना नहीं कर पाओगे।
सुन लो ए मुगलों,
चाहे भाइयों को भाई से लड़ा लो.
मगर कभी अकबर को ना,
रणभूमि में उतार पाओगे।
हम हारकर भी, झुक जाए,
मिट जाए, अगर किसी दिन.
पर सिक्खों की बस्ती में,
तुम लोहा ना उठा पाओगे।
की जब तक हैं गुरु गोबिंद सिंह जी,
ए मुगलों,
तुम कभी भारत न जीत पाओगे।

 

परमीत सिंह धुरंधर

राणा सांगा


किस्मत से बड़ी है मेहनत,
मेहनत से बड़ा है जज्बा।
हम हारकर भी न बैठेंगे,
ये कह रहा हैं सांगा।
हम लड़ते रहेंगे,
हम बढ़ते रहेंगे।
किस्मत बदले या न बदले,
रुख नहीं बदलेगा ये सांगा।
बंधना मुझे स्वीकार नहीं,
और झुकना मेरा स्वाभिमान नहीं।
जब तक न मिलेगी मंजिल,
यूँ ही भटकता रहेगा सांगा।
मेरा हौसला मेरे साथ है,
कोई साथ आये या नहीं।
मोहब्बत मुझे है यूँ हिन्द से,
की अकेला भिड़ता रहेगा दुश्मनों से सांगा।

परमीत सिंह धुरंधर

ए हिन्द तुझे सजाऊंगा मैं


ए हिन्द,
तुझे सजाऊंगा मैं.
इसलिए नहीं की तू मेरा है,
बल्कि इसलिए की तू अनोखा है.
दिव्यज्योति है तू इस संसार का,
चमकता है तुझसे ही,
भाल मानवता का.
ए हिन्द,
तुझे सवारूँगा मैं.
इसलिए नहीं की तू अकेला है.
बल्कि इसलिए की तू अलबेला है.
चाँद है तू जीवन के आसमान का,
बिन तेरे अंधेरो में है हर जहाँ।
ए हिन्द,
तुझे सम्भालूंगा मैं.
इसलिए नहीं की मुझे लालच है कोई,
बल्कि इसलिए की तू मेरा गर्व है.
तुझे छोड़ के चाहे जितने भी चले जाए,
दूर किसी के दामन में बसने।
जितने भी चाहे, इल्जाम लगा लें,
अहिषुण्ता का तुझपे।
ए हिन्द,
लौट के आऊंगा मैं.
इसलिए नहीं की मेरा कोई आसरा नहीं है.
बल्कि इसलिए की मुझे तू प्यारा बहुत है.

परमीत सिंह धुरंधर

लक्ष्य


सबका हित हो,
सबका कल्याण हो.
मानव के संग,
मानवता का विकास हो.
न किसी का शोषण हो,
न कोई शोषित ही रहे.
भारत वर्ष में,
जन-जन का उत्थान हो.
ना कोई बच्चा दूध को तरसे,
ना बूढें अब भोजन को.
शिक्षित – अशिक्षित सबका,
सबपे हक़ अब सामान हो.
किसी एक के आंसू पे,
ना दूसरे का मुस्कान हो.
भारत वर्ष में,
जन-जन का उत्थान हो.
मानव के संग,
मानवता का विकास हो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

भारत और औरत


हम रंग देते हैं दीवारों को,
पर मेरे पास कोई घर नहीं।
हम लड़ते है सरहद पर,
मेरे अपनों के पास एक छत नहीं।
हम उपजाते हैं आनाज,
अपने पसीनें को जलाकर।
और हमारे बच्चो को,
खाने को भोजन नहीं।
ये देश है बुध-महावीर का,
भारत इसका नाम है.
जहाँ बिकती है नारियां,
और औरतों का सम्मान नहीं।

 

परमीत सिंह धुरंधर