मीत बनके


बाग़ में गयी थी कल सखी मैं फूल तोड़ने,
कोई पावों को चुम गया मेरे शूल बनके।
छत पे गयी थी कल सखी मैं गेहूं छांटने,
आँखों में बस गया कोई मेरे धूल बनके।
पनघट पे गयी थी कल सखी मैं पानी भरने,
जोवन को चख गया कोई मेरे जल बनके।
कैसे कहूँ घर में ये सारी बातें, की
ह्रदय में रहने लगा है कोई मेरे मीत बनके।

परमीत सिंह धुरंधर