अभी अधरों को वक्षों पे लगाया था


अंग – अंग खिल कर,
हिमालय हो गए हैं.
वो कहती है,
की ये नाजुक बड़ी है.
अभी – अभी अधरों को,
वक्षों पे लगाया था.
और वो हैं की,
उनपे चोली कस रही हैं.
अभी सिलवट तक टूटी नहीं,
और चादर भी कोरा ही है.
मैंने जुल्फों को बस,
अभी छुआ ही तो था.
और वो हैं की अपनी,
चुनर समेटने लगीं हैं.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मेरे वक्ष ही हुए मेरे सौतन


जब से भए तुम बालम जी परदेसिया,
प्यासी – प्यासी मैं, प्यासी रे अचरिया।
मेघ बरसे, माटी भींगें, सोंधी रे महक,
बिन तेरे बालम जी, अंग -अंग भारी और प्रबल।
जब से भए तुम बालम जी परदेसिया,
प्यासी – प्यासी मैं, प्यासी रे अचरिया।
चुहानी बैठूं, जांत चलाउन, मुसल चलाउन,
कहाँ मिटती हैं फिर भी तन – मन की थकन.
जब से भए तुम बालम जी परदेसिया,
प्यासी – प्यासी मैं, प्यासी रे अचरिया।
कलियाँ खिलीं, भ्रमर गूंजे, आयी रे सावन,
बिन तेरे बालम जी, मेरे वक्ष ही हुए मेरे सौतन।
जब से भए तुम बालम जी परदेसिया,
प्यासी – प्यासी मैं, प्यासी रे अचरिया।

 

परमीत सिंह धुरंधर

#noBraDay


Without the bra,
You look like Cleopatra.
So lets celebrate #noBraDay,
Twice in a year.
One on Oct. 13 and
The other will be on your
Birthday dear.
Nothing can compensate,
The feeling I have for you.
It does not matter,
Whether you put on a bra,
Or you don’t wear.
So lets celebrate #noBraDay,
Every day except Sunday.

Parmit Singh Dhurandhar

उन्नत वक्ष


तुम्हारे उन्नत-उन्नत वक्षों पे,
फीका है चाँद अम्बर का.
तुम्हे मय की क्या जरुरत,
नशा है तुमसे मयखाने का.
तुम चलो तो दरिया सुख जाए,
प्यास बढ़ जाए सागर का.
तुम्हारे गहरे-गहरे नैनों पे,
दम्भ है झूठा सागर का.
तुम्हे मय की क्या जरुरत,
नशा है तुमसे मयखाने का.
तुम्हारे नितम्बों पे झूलती ये चोटी,
जैसे चन्दन बन का मतवाला भुजंग।
तुम्हारे मधुर – मधुर इन अधरों के आगे,
देवों का अमृत विषैला है.
तुम्हे मय की क्या जरुरत,
नशा है तुमसे मयखाने का.

परमीत सिंह धुरंधर

विषधर और स्तन-प्रेम


भैंसे,
दौड़ती हुई,
आनंद देतीं हैं.
खुरों से रोंद्ती,
उड़ाती हुई,
धूलों को.
अपने सींगों पे,
उछलती,
हवाओं के दम्भ को.
योवन से भरपूर,
उन्नत अपने स्तनों से,
विषधर को भी,
पागल कर देतीं हैं.
भैंसे,
दौड़ती हुई,
आनंद देतीं हैं.
काली हैं,
पर मतवाली हैं.
घंटों, तालाब में बैठी,
पगुराती हैं.
हरी – हरी दूबों को,
चरती, लहराती,
दो नयनों से अपने,
उपवन को मधुवन,
बना देती हैं.
भैंसे,
दौड़ती हुई,
आनंद देतीं हैं.

परमीत सिंह धुरंधर