मेरे गजानन


प्रभु, प्रभु आपके चरणों का मैं एक दास हूँ
मेरे गजानन, नित्य करता मैं आपको प्रणाम हूँ.
लाज रख लो मेरी मेरे गणपति,
मेरे गजानन, हर तरफ से हारा, मैं एक लाचार हूँ.
कुछ भी नहीं आँखों में मेरे आँसूं के सिवा
मेरे गजानन, हर तरफ से ठुकराया, मैं इतना कंगाल हूँ.
मौत से पहले एक जीत तो दे दो
मेरे गजानन, थका -हारा मैं इतना हतास हूँ.
कैसे छोड़ दूँ ये आस आपसे मेरे गणपति
मेरे गजानन, जब मैं केवल आपका ही ख़ास हूँ.

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हे गजानन, आपका अभिनन्दन।


विशाल देह, विशाल कर्ण, विशाल नयन
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

महादेव के लाडले, गौरी – नंदन
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

आपके चरण-कमलों से बढ़कर नहीं कोई बंदन
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

सफल करो मेरे प्रभु अब मेरा भी जीवन
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

नित ध्यायु आपको, करूँ आपका ही श्रवण
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

मैं पापी, मुर्ख, अज्ञानी, जाऊं तो जाऊं किसके अब शरण
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

बस जाओ, हे प्रभु, अब मेरे ही आँगन
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

सुबह-शाम पखारूँ मैं आपके चरण
हे गजानन, आपका अभिनन्दन।

परमीत सिंह धुरंधर

जय गणपति


रूप विराट, नयन विशाल
तेज ललाट पे स्वयं सूर्य सा.

देवों के देव, प्रथम पूज्य
आशीष प्राप्त तुम्हे
स्वयं शक्ति-महादेव का.

परमीत सिंह धुरंधर

हे गणपति अब तो पधारो


हे गणपति अब तो पधारो
टूट रहा मेरा आस भी.
निरंतर असफलताओं के मध्य, हे अवनीश
कब तक करूँ और प्रयास भी?

हे गजानन, हे वक्रकुंड
अब तो रख दो मस्तक पे हाथ ही.
कुछ तो मिले सहारा प्रभु देवव्रता
कब तक भटकता रहूं?
मरुस्थल में यूँ असहाय ही.

एक आपका नाम जपकर हे गौरीसुता
सबका बेड़ा पार हुआ.
कब तक मैं पुकारूँ आपको हे गदाधर?
छूट रहा मेरा सांस भी.

आपका – मेरा अनोखा है रिश्ता, हे गजकर्ण
आप मेरे अग्रज, आप ही सखा
आप ही मेरे भाग्या भी.

अब तो निष्कंटक कर दो
पथ मेरा, हे गणाधाक्ष्य
बिन आपके इक्क्षा और आशीष के हे चतुर्भुज
रख नहीं सकता मैं एक पग भी.

हे गणपति अब तो पधारो
टूट रहा मेरा आस भी.
निरंतर असफलताओं के मध्य, हे अवनीश
कब तक करूँ और प्रयास भी?

परमीत सिंह धुरंधर

रोम – रोम से गजानन हम आपका गुणगान कर रहे


प्रभु आप जब से जीवन को साकार कर रहे,
रोम – रोम से गजानन हम आपका गुणगान कर रहे.
चक्षुओं को भले प्रभु आपका दर्शन ना मिला हो,
हम साक्षात् ह्रदय से परमानंद का आभास कर रहे.

अद्भुत है आपका अलंकार देवों में,
स्वयं महादेव भी ये बखान कर रहे.
लाड है, प्यार है माँ पार्वती को आपसे,
जग में शक्ति को प्रभु आप स्वयं सम्पूर्ण कर रहे.

मैं भिखारी हूँ, भिक्षुक हूँ दर का प्रभु आपके,
कृपा है प्रभु आप मुझपे नजर रख रहे.
आपके चरण-कमलों में हो मस्तक मेरा भी,
बस इसलिए प्रभु हम आपका नाम जप रहे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मैं भी त्याग करूँ सर्वश्व अपना


आवो माँ,
करें उपासना शिव – शंकर की,
हम आज साथ में.
पिता मेरे कितने भोले हैं?
रखते हैं सर्पों को भी साथ में.
सर्वश्व त्याग कर जिसने,
सिर्फ एक कैलास को थाम लिया।
अमृत दे कर जग को सारा,
जिसने स्वयं विष-पान किया।
तो आवो माँ,
चरण पखारें शिव – शंकर की,
आज हम साथ में.
पिता मेरे कितने भोले हैं?
रखते हैं सर्पों को भी साथ में.
हर जन्म में पुत्र बनूँ मैं शिव का,
ये गोद मिला मुझे सौभाग्य से.
बन कर धुरंधर शिव सा,
मैं भी त्याग करूँ सर्वश्व अपना,
जग कल्याण में.
तो आवो माँ,
आशीष ले शिव-शंकर की,
हम आज साथ में.
पिता मेरे कितने भोले हैं?
रखते हैं सर्पों को भी साथ में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

गजानन स्वामी मेरे


गजानन – गजानन, प्रभु मेरे,
मुझ पर भी दया दृष्टि करो.
मुश्किलों में है सारी राहें मेरी,
हे विध्नहर्ता, इन्हे निष्कंटक करो.
ज्ञान के आप हो अथाह – सागर,
दिव्य ललाट और विशाल – नयन.
अपने नेत्र-ज्योति से मेरे जीवन में प्रकाश करो.
गजानन – गजानन, स्वामी मेरे,
मेरे मन-मस्तिक में विश्राम करो.
अपमानित हूँ, दलित हूँ,
जग के अट्ठहास से जड़ित हूँ.
आप प्रथम -पूज्य, आप सुभकर्ता,
महादेव – पार्वती के लाडले नंदन।
मेरे मस्तक पे अपना हाथ रखों।
गजानन – गजानन, स्वामी मेरे,
इस अपने सेवक का भी मान रखो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

कोई नहीं गणपति जैसा: सुन्दर और वयापमं.


कोई नहीं गणपति जैसा!
सुन्दर और वयापमं।
कोई नहीं गणपति जैसा!
सरल और सुगम।
हर्षित कर दें मन को,
और पुलकित हर उपवन।
कोई नहीं गणपति जैसा!
विघ्न – विध्वंशक।
कोई नहीं गणपति जैसा!
उत्तम -सर्वोत्तम।
विकट-विरल हो परिस्थिति,
या दुर्गम -दुर्लभ मार्ग हो.
कोई नहीं गणपति जैसा!
जो कर दे, हर मार्ग, निष्कंटक।
कोई नहीं गणपति जैसा!
जो देवों में प्रथम।
बस मोदक पे ही,
तुम्हे आशीष अपना दे दें.
बस दूर्वा पाकर तुमसे,
कर दे तुम्हारा भाग्योदम।
कोई नहीं गणपति जैसा!
मधुर- और – मोहक।

 

परमीत सिंह धुरंधर

माँ


भगवान गणेश जी, भगवान श्री कृष्णा जी और भगवान हनुमान जी, सभी महान बने क्यों की उनका बचपन बस माँ और उनके हाथों से बने खाने को खाने में गुजरा। माँ के हाथ और उसके हाथ से बने खाने की महिमा इसी से समझी जा सकती है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

जय गणपति-जय मंगलमूर्ति


पापों से मुक्ति,
ज्ञान और भक्ति,
सब मुझको दीजिये,
हे गणपति.
मैं हूँ आपका सेवक,
आप मेरे स्वामी,
हे अधिपति।
मेरे मस्तक में,
प्रवाह करो,
ह्रदय में मेरे,
वास करो.
आँखों में ज्योति,
हो तुम्हारी,
साँसों में संस्कार,
भरो,
हे मंगलमूर्ति।

 

परमीत सिंह धुरंधर