मैं और मोदी


सावरकर के बाद मैं ही हूँ बुद्धिमान। और दुनिया गाँधी को समझती है. माना की मेरे निर्णय से मुझे बस घाटा ही हुआ है. पर सिर्फ मैं ही कूद सकता हूँ समुन्दर में, सावरकर के बाद. निर्णय लेने का साहस मुझमे ही है, नेता जी के बाद. और दुनिया है की नेहरू का नाम जपती है. घमंड में महाराणा के बाद मैं ही हूँ. और दुनिया है की मोदी – मोदी करती है.

आज बहुत दिनों बाद फिर खुद पे घमंड हो गया. सायद कल महाशिवरात्रि पे भगवान् शिव का पूजन करने से उनका आशीष मिला है.

परमीत सिंह धुरंधर

क्यों चाँद पे आक्सीजन की कमी है?


तुम मिली तो लगा,
सूरज में भी नमी है.
तुम हंसी तो जाना,
काँटों में भी जिंदगी है.
मगर जब दिल तोडा तुमने,
तब समझा क्यों चाँद,
पे आक्सीजन की कमी है?

 

परमीत सिंह धुरंधर

शहंशाये-हिन्द


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तुमसे इश्क़ करके,
हम नादान बन गए.
तुम सुरमा लगाने लगे,
हम धुंआ उड़ाने लगे.

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बस शिव ही अनन्त हैं


शिव तो अजर हैं,
शिव तो अमर हैं.
शिव के समक्ष कोई तो नहीं,
जो प्रखर है.
शिव के समुख,
सब भेद मिट जाता है.
अमृत-विष, शिव के समक्ष,
सब एक सामान हैं.
शिव तो प्रचंड हैं,
शिव तो अखंड है.
काम को भस्म किया,
काल को अधीन किया।
कैलाश पे विराजकर,
धरती को सुशोभित किया।
शिव ही नृत्य हैं,
शिव ही संगीत हैं.
समस्त सृष्टि में कोई तो नहीं,
जो ना शिव के अधीन है.
शिव तो आदि हैं,
शिव ही अंत हैं.
सम्पूर्ण सृष्टि में,
बस शिव ही अनन्त हैं.

 

परमीत सिंह धुरंधर

शिव ने कंठ के अधीन किया


अमृत के लालच में समुन्द्र का मंथन हुआ,
प्रकट हुआ जब गरल,
तो बल के साथ लोभ का भी अंत हुआ.
सुर क्या, असुर क्या,
मंदराचल और सर्पराज बासुकी,
का मन भी भयक्रांत हुआ.
मच गया हाहाकार,
मिट गया हर एक भेद-भाव,
छोड़ कर अमरत्व,
सब ने सिर्फ जीवन को बचाने का प्रयत्न किया।
पशु-पक्षी, और वृक्ष,
कट – कट, कर गिरने लगे,
ताल -तलैया, नदी -सागर,
सबको गरल ने सोंख लिया।
जब शिव के आँगन में,
कोई और काल बन,
जीवन के मस्तक पे, तांडव का आरम्भ किया।
तो शिव ने खोल दी आँखे,
और महाकाल बनकर,
उस कालरूपी – गरल को,
अपने कंठ के अधीन किया।

 

परमीत सिंह धुरंधर

गुनाह


समुन्द्रों से मत पूछ,
गहराइयों के राज.
यहाँ हर कोई गुनाहों के,
चादर में लिपटा हुआ है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

तुमसे बच्चे कर लुंगी


तुम्हे अपनी नजरों से इसारे कर दूंगी,
ना माने अगर बाबुल तो भी तुमसे बच्चे कर लुंगी।
दुनिया चाहे जो भी नाम दे दे मुझे,
पति को दे के जहर, तुम्हारी ता – उम्र गुलामी कर लुंगी।
एक सनक सी सवार है मस्तक पे मेरे,
तुझे पाने के लिए, हर गुनाह कर दूंगी।
रहती हूँ भोली – भाली सी घर – शहर में,
मगर तुझे अपना बनाने को, कमीनी बन लुंगी।

कुछ लोग सनकी होते हैं. उनके मस्तक पे एक सनक सवार होती है. तूफ़ान भी आ जाए, और अगर वो निकल चुके हैं घर से तो , वापस नहीं लौटेंगे। वो मिट जाएंगे, दुनिया हँसेगी, लेकिन उनको अपनी सनक, अपनी मौत से ज्यादा प्यारी है. ऐसे लोगो की हार नहीं होती, भले दुनिया उन्हें हारा हुआ समझे। ये लोग भले ज्यादा दिन न रहे, राज न करे, पर जब तक होतें हैं, एक बंटवारा तो हुआ रहता है समाज का उनके नाम पे, उनके काम पे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

जोशे-जूनून


दरिया बहती रहे,
तो समुन्द्रों के ना मिलने का,
दर्द नहीं होता।
सींचते रहो मरुस्थल को,
जिंदगी में जोशे-जूनून,
फिर कभी काम नहीं होता।

 

परमीत सिंह धुरंधर