इस शहर के हर मोड़ पे अकेला – अकेला सा महसूस करता हूँ
घर किसी का भी टूटे, मैं टुटा – टुटा सा महसूस करता हूँ.
परमीत सिंह धुरंधर
इस शहर के हर मोड़ पे अकेला – अकेला सा महसूस करता हूँ
घर किसी का भी टूटे, मैं टुटा – टुटा सा महसूस करता हूँ.
परमीत सिंह धुरंधर
कुटे-कुटे चली रानी
कुटे-कुटे तू
सांग ज़रा नैनों से
कब करेगी गुटर-गू.
बरसने लगे हैं बादल
उठने लगी है मिटटी से खुसबू।
गूंजने लगे हैं भोंरे
और चमकने लगे हैं जुगनू।
सांग ज़रा नैनों से
कब करेगी गुटर-गू.
तू बसंत सी खिली – खिली
मैं निशाचर उल्लू।
तू मराठी-मुलगी
और मैं बिहारी लट्टू।
सांग ज़रा नैनों से
कब करेगी गुटर-गू.
परमीत सिंह धुरंधर
जिंदगी को जीने का
अपना – अपना विचार है.
जब बंट रहा था अमृत
तो शिव विष धारण कर गए.
सोने की लंका का त्याग कर
कैलास को पावन कर गए.
भगीरथ के एक पुकार पर
प्रबल-प्रचंड गंगा को
मस्तक पर शिरोधार्य कर गए.
जब बंट रहा था अमृत
तो शिव विष धारण कर गए.
गर्व का त्याग कर
कृष्णा सारथि बने कुरुक्षेत्र में.
सब सुखों का श्रीराम
परित्याग कर गए.
हिन्द की इसी धरती पे
जब रचा गया चक्रव्यूह
तो वीरता के अम्बर को
अभिमन्यु दिव्यमान कर गए.
जब बंट रहा था अमृत
तो शिव विष धारण कर गए.
परमीत सिंह धुरंधर
हम भी जवानी में जिगर रखते थे
अब बस तेरी यादें हैं, तेरी खतों के सहारे।
कभी हौसला हमारा भी था तूफानों से टकराने का
अब सीने में तूफ़ान रखते हैं, तेरी यादों के सहारे।
परमीत सिंह धुरंधर
शहर में जो भी ख्वाब हैं
सब उदास हैं.
घरों में बालकनी है
बालकनी में पौधें हैं
पौधों पे फूल और फूल पे तितलियाँ हैं
पर ना वो सुबह है ना वो शाम है.
शहर में जो भी ख्वाब हैं
सब उदास हैं.
अजीबो-गरीब रिश्ते हैं
झगड़ालू बीबी तो भागती प्रेमिका है
बिना शादी के होते बच्चे हैं
पर किसी को नहीं पता
कैसे किसके माँ – बाप हैं?
शहर में जो भी ख्वाब हैं
सब उदास हैं.
परमीत सिंह धुरंधर
समंदर भी कहाँ शांत है हवाओं का जोर से?
तन्हा – तन्हा सा मैं तन्हाइयों का शोर में.
जो समझते हैं मसीहा खुद को इस दौर है
उन्हें क्या पता, कब क्या हो जाए, किसी मोड़ पे?
परमीत सिंह धुरंधर
जिसको भी आता है घोंषला बनाना
इस शहर में उसी का घोंषला नहीं है.
कैसे सवारोगे किस्मत को Crassa?
किस्मत में बस यही एक चीज़ लिखी नहीं है.
उड़ रहे हैं बहुत परिंदे आसमा में
मगर दूर – दूर तक इनका कोई आशियाना नहीं है.
संभालना सिख लो गलियों में ही
ये शहर देता दोबारा मौका नहीं है.
उजड़ा है मेरा गुलिस्ता यहीं पे कभी
मगर शहर ये अब भी शर्मिन्दा नहीं है.
परमीत सिंह धुरंधर
तुम लता बन कर बाँध रही हो
मैं तना बन कर छुप रहा हूँ.
तुम पुष्प सी पुलकित हो कर
मेरी डालो पे खुशबु बिखेर रही हो.
और Crassa कण – कण में
पिंक – पिंक होकर बिखर रहा है.
ए समंदर मेरे, मेरा शौक रख
माना की अकेला हूँ अभी
पर फिर भी तू मेरा खौफ रख.
तेरे तट पे अभी भिक्षुक हूँ मैं
पर दसरथ-पुत्र हूँ मैं
उसका तो तू मान रख.
गुजरा है मेरा भी कारवां
जय – जयकारों के उद्घोष से.
अगर तू अनजान है तो
बेसक यूँ ही मौन रख.
मगर मेरी तीरों को अब भी
आशीष प्राप्त है महादेव का.
अतः निष्कंटक छोड़ दे मेरी राहें
अन्यथा रघुवंश से युद्ध का गर्व प्राप्त कर.
परमीत सिंह धुरंधर
तन्हाइयों से भरी रही हैं यहाँ तक मेरी राहें
पर मंजिल पे खामोशियाँ भी मदहोस कर रही हैं.
तू नजरों के सामने आये या ना आये सही
तेरे ख्वाब मुझे ज़िंदा रख रही हैं.
परमीत सिंह धुरंधर