भज गोविन्दम


भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
भज गोविन्दम रे.
मन की पीड़ा, तन का कष्ट
सब प्रभु हजार लेंगे।

भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
भज गोविन्दम रे.
ना कोई माया है, ना कोई है छल
निमल मन से पुकार लो
प्रभु दौड़े आएंगे।
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
भज गोविन्दम रे.

चार पहर के मल्ल युद्ध में
जब ग्राह ने छल किया।
भक्त की पीड़ा पे श्रीहरि दौड़े
ना क्षण भर का विश्राम किया।
बस नयनों में नीर को भर लो
प्रभु दौड़े आएंगे।
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
भज गोविन्दम रे.

नारी और श्री हरी


जब – जब नारी पात्र बनी है, हंसी, भोग, बिलास का
श्री हरी अवतरित हुए हैं लेकर नाम कृष्णा – राम का.

पूरी महाभारत रच दिया था, रखने को एक नारी की लाज
कैसे तुम नाम दोगे उसे नारी के अभिशाप का?

ज्ञान पे तुम्हारे लग रहा, अब अभिमान है छा रहा
वाणी ऐसी ही होती है, जिसके मन – मस्तक में हो पाप छिपा।

अभिमानी को कब हुआ है श्री हरी का आभास भी
ऐसे ही जन्म होते हैं कुल-काल-कोख पे दाग सा.

परमीत सिंह धुरंधर 

श्री हरी विष्णु


तुम करुणामयी भक्तवत्सल
तुम धर्म का आधार हो.
सर्वव्यापी, निरंतर, अचर-अगोचर तुम
तुम सनातन साकार हो.
मैं मुर्ख -अज्ञानी – पापी
मुझे क्षमा करो, मेरा उधार हो.
सृष्टि के आदिकर्ता, पालक – संहारक तुम
तुम ब्रह्म निराकार हो.
जीव – अजीव सब तुममे समाहित
तुम कण – कण में विराजमान हो.

परमीत सिंह धुरंधर

प्रण


जहाँ विश्व थम जाएँ,
मैं वहां तक प्रयाश करूँ,
थक कर गिर भी जाऊं,
तो उठ कर साहस,
फिर एक बार करूँ,
हे प्रभु हरि विष्णु।

परमीत सिंह ‘धुरंधर’

प्रण


अहंकार से रिक्त रहूँ,
पाखण्ड से मुक्त रहूँ,
प्रेम से सदा संचित रहूँ मैं,
पाप से सदा बंचित रहूँ मैं,
हे प्रभु विष्णु।
वेदो को गीतों में ढाल के,
जन – जन को पहना दूँ,
धर्म को माँ, और माँ को धर्म मान के,
सम्पूर्ण भारत को नहला दूँ.
अभिलाषों से रिक्त रहूँ,
लालशा से मुक्त रहूँ,
ज्ञान से सदा संचित रहूँ मैं,
अज्ञान से सदा बंचित रहूँ मैं,
हे प्रभु हरी बिष्णु।

परमीत सिंह ‘धुरंधर’

प्रभु हरि विष्णु


आप सा सरल कोई धर्म नहीं,
आप सा सबल कोई कर्म नहीं,
जो दौड़ती हैं आपकी नशों में,
मेरे मस्तिक में ओ ही प्राण दीजिये,
या प्रभु हरि विष्णु,
मुझपे भी थोड़ा धयान दीजिये।
ऐसा कोई पथ नहीं,
जो न मिले जाके आपके भवसागर में,
लक्ष्यहीन मेरे इस जीवन को,
मंजिल प्रदान कीजिये,
या प्रभु हरि विष्णु,
मुझपे भी थोड़ा धयान दीजिये।
सुगम नहीं है व्रत आपके नाम का,
पर ले लिया है प्रण,
अब चाहे तो मेरा बलिदान लीजिये,
या प्रभु हरि विष्णु,
मुझपे भी थोड़ा धयान दीजिये।
मुझसे भी कई हैं सबल यहाँ,
मुझसे भी कई है कर्मठ यहाँ,
भक्तों की भीड़ लगी है यहाँ,
सबसे पीछे खड़ा हूँ मैं निर्धन,
मौत से पहले मेरे जीवन को,
ऊंचाई का आसमान दीजिये,
या प्रभु हरि विष्णु,
मुझपे भी थोड़ा धयान दीजिये।

परमीत सिंह ‘धुरंधर’

प्रभु विष्णु


ज्ञान दीजिये, अरमान दीजिये,
या फिर मुझको ये वरदान दीजिये,
वृक्षों से हरी कर दूँ सारी धरती,
या प्रभु मुझको दर्शन दीजिये – दर्शन दीजिये।
मान दीजिये, सम्मान दीजिये,
या फिर मुझको ये वरदान दीजिये,
हर रोते हुए को मैं दे दूँ हंसी,
या प्रभु विष्णु मुझ पे भी धयान दीजिये।

परमीत सिंह परवाज