15 ऑगस्त


मैं 15 ऑगस्त को याद करता हूँ,
बाबा नागार्जुन को और गाता हूँ “आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,”
क्यों की और कोई गान मुझे आजादी और गुलामी का भेद नहीं बताता।
महाराणा प्रताप को,
क्यों की मैं अकबर को महान नहीं मानता।
सिरोजदौला, टीपू सुलतान और असफाक को,
क्यों की मैं धर्मनिरपेक्षता को नहीं मानता।
हिमायूं को,
क्यों की मैं उसे मुग़ल नहीं मानता।
राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल को,
क्यों की उनसे बड़ा बुद्धिजीवी कोई मुझे नहीं दिखता।
अजबदेह, पद्मावती, जीजाबाई को,
क्यों की मैं स्त्री को सम्मान देना नहीं जानता।
लाल बहादुर और इंदिरा गांधी को,
क्यों की मैं उनसे बड़ा नेता किसी को नहीं मानता।
राम मनोहर लोहिया को,
क्यों की जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति को सम्पूर्ण नहीं मानता।
और अंत में श्यामा प्रसाद मुख़र्जी और उनकी रोती हुई माँ को,
क्यों की भारत वर्ष में केवल एक नाथूराम हुआ है और केवल एक महात्मा की ह्त्या हुई है, मैं इसे नहीं मानता।

परमीत सिंह धुरंधर

शहादतों को सरहदों में मत बांटों


शहादतों को सरहदों में मत बांटों,
भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद,
भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे,
ना की हिन्दू कौम के लिए.
सुभाषचंद्र बोस की लड़ाई ब्रिटिशों से थी,
ना की मुस्लिमों से.
फिरकापरस्त है वो लोग जो, धर्म और क्षेत्र में,
बाँट रहे हैं देशभक्तो को.
अस्फाकुल्लाह खान हों या टीपू सुलतान,
सब भारत की शान हैं.
उनकी शहादत भारत के लिए थी,
ना की मजहब और अपने कौम के लिए.

 

परमीत सिंह धुरंधर

हमें JNU नहीं, नालंदा चाहिए


हमें JNU नहीं,
नालंदा चाहिए।
तुम मांगते हो,
फ्रीडम ऑफ़ स्पीच,
हमें लोहिया चाहिए।
तुम चाहते हो दीवारें,
की साजिशें रचो.
हमें खुले आसमा के,
तले छत चाहिए।
तुम्हारे इरादें की हर फूल का,
अलग बगीचा हो.
हमें तो अनेक फूलों की,
एक ही माला चाहिए।
की अब वक्त आ गया है,
हमें चाणक्य चाहिए।
की हमें अफजल नहीं,
बस अशफाक चाहिए,
हर Crassa को अब यहाँ,
एक आफताब चाहिए।
अपनी आखिरी साँसों तक,
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई,
सबको पूरा और एक हिन्दुस्तान चाहिए।

 

परमीत सिंह धुरंधर

 

 

आरजु – ए- वतन


धरती पे, आसमां पे,
आरजु – ए- वतन रखता हूँ.
चाहे जहाँ भी रहूँ,
भोजपुरी को अपनी माँ कहता हूँ.

 

परमीत सिंह धुरंधर

कलम और भय


कलम उठा ली है,
तो भय क्या फिर तलवार का.
जब आ गए हैं सागर की लहरों में,
तो फिर सहारा क्या पटवार का.
चाँद साँसों के लिए,
नहीं झुकने देंगे ये अपना तिरंगा।
जब मौत ही निश्चित है,
तो फिर भय क्या क़यामत का.

परमीत सिंह धुरंधर