वो क्या था,
मेरा ख़्वाब,
या कोई हकीकत।
मेरी खुली आँखों,
का सच,
या फिर,
बंद पलकों का,
कोई कमाल।
मैं आज तक नहीं,
जान पाया।
ऐसी बारिश जो,
फिर दुबारा न हुई।
वो मुलाकात,
जिसमे पल तो गुजरे,
साथ, पर मैं,
पहचान न सका.
एक क्षण को वो,
सामने थी, जैसे
सुबह की उषा.
जैसे, बादलों के
योवन को चीरती,
मीठी धूप.
जैसे पलके खुलने,
से पहले, आँखों में
पला मीठा सपना।
आज भी भागता हूँ,
आज भी रोता हूँ,
आज भी ढूंढता हूँ।
सोचता हूँ की,
कहीं तो मिलेंगी,
कभी तो दिखेंगी।
इस बार वैसी,
गलती नहीं।
पर मन भयभीत है,
कैसे पहचानूँगा।
बस देखा ही तो था,
वो भी एक क्षण को।
लेकिन बरसो का सुख,
दे कर, वो छुप गयी,
पूर्णिमा की चाँद सी।
सुबह की ओस सी।
कहीं बदल न,
गयीं हों।
कहीं घूँघट न,
रखती हो अब।
हर पल डरता है,
मेरा दिल,
हर पल भयभीत है,
मेरा दिल।
ये सोच कर की,
कहीं अब घर से ही,
ना निकलती हो.
पर मैं तो घर भी नहीं,
जानता उनका।
ना ही जानता हूँ,
पता उनका।
ना कोई फोटो ही है,
ना कोई जानकारी।
पर एक कोसिस है,
आज भी मेरी लड़ाई है,
अपनी किस्मत से।
शायद मिल जाए,
कभी दिखा जाएँ,
इन राहों में,
दिन में या रातों में,
दिल्ली में या पुणे में।
आज भी ढूंढ़ रहा हूँ.
तो दोस्तों,
उन्हें घरो से निकलने से,
मत रोको।
उन्हें घूँघट या पर्दा करने,
को मत कहो.
तो दोस्तों, उनपे हमला,
मत करो,
उनको जख्म मत दो।
जब तक वो मुझे,
मिल नहीं जाती।
उनका बलात्कार,
मत करो।
की मैं,
अभी तक अपनी,
महबूबा ढूंढ़ रहा हूँ।
परमीत सिंह धुरंधर
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