बस गगन के वास्ते हो राहें मेरी,
फिर चाहे आमवस्या में हो या राहें पूर्णिमा में।
उम्र भर चाहे ठोकरों में रहूँ, कोई गम नहीं,
मगर मंजिलें मेरी राहों की हो आसमाँ में।
तारें चाहें तो छुप लें,
चाँद चाहे तो अपनी रौशनी समेट ले.
हो प्रथम स्वागत चाहे अन्धकार में मेरा,
मगर प्रथम चुम्बन उषा का हो आसमाँ में.
पाला -पोसा गया हूँ छत्रसाया में धुरंधरों के,
तो क्यों ना अभिमान हो मुझे?
लहू तो सभी का लाल है यहाँ,
मगर एक इतिहास खड़ा है मेरे पीछे।
यूँ ही नहीं तेज व्याप्त है मेरे ललाट और भाल पे,
क्षत्राणी का दूध और भगवान् शिव का
आशीर्वाद प्राप्त है मुझे।
मेरा अपमान क्या और सम्मान क्या भीड़ में?
जब तक मेरे तीरों का लक्ष्यभेदन हैं आसमाँ में.
अंक और केसुओं की चाहत में रेंगते हैं कीड़े भी,
फिर मैं क्या और और अफ़सोस क्यों ?
जब तक लहराता है मेरा विजय-पताका आसमाँ में.
परमीत सिंह धुरंधर