माँ सरस्वती और मेरी कलम


लिखता हूँ तो लिख देता हूँ,
जिंदगी को हर तकाजे में.
ये ऐसा गुलिस्तां हैं दोस्तों,
जहाँ प्यास मिटती नहीं,
बस जिस्म के मिल जाने से.
ओठों को चख – चख के,
कितने मायूस हैं इस गलियारे  में.
जो  ठोकरों में भी मुस्कराए,
वैसे कमल को खिलता हूँ अपनी कलम से.
माँ सरस्वती का भक्त हूँ मैं,
मेरी आँखों को बस उनकी ही लालसा।
उनके चरणों को चुम लूँ,
तो मीट जाए मेरी हर तृष्णा।
ऐसे ही दुःस्वप्न ले कर,
भटक रहा हूँ जीवन के मरुस्थल में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

This is just to explain that life is not only for success in professional life, in relationship. It is beyond that to understand the connection with the source of energy.

वक्षों की आस


बाहर बादलों की भीड़ हैं प्रिये,
बरस रहें हैं द्वार पे, वो नित प्रिये।
तुम वहाँ गावं में, हम यहाँ परदेश में,
प्रीत में ये कैसी रीत हैं प्रिये।
लाता हूँ रोज फूलों को, जुल्फों की तेरे याद में,
दीपक भी जलाता हूँ, तेरे मुखड़े की आभा में.
तुम चूल्हा-चौकी पे, हम लम्बी रातों में.
विरहा के ये कैसे गीत हैं प्रिये।
ओठों की लाली हम नहीं चख पाए,
आँखों के काजल हम नहीं सोंख पाए,
ना पतली कमर पे हाथ ही फेर पाए.
तुम सीने में दबाए, हम वक्षों की आस लगाए,
जीवन की ये कैसी पीर है प्रिये।

 

परमीत सिंह धुरंधर

These lines describe when husband is in city and his wife is in village. They have not spend quality time after marriage as her husband had to go for job. He is missing his wife as it is raining outside. So he is trying to imagine her face and her beauty. This was situation during 1970-2000, not now.

16 – 96


मेरे ओठों पे तब भी प्यास थी,
जब मैं 16 का था.
मेरे ओठों पे अब भी प्यास हैं,
जब मैं 36 का हूँ.
और मेरे ओठों पे तब भी प्यास होगी,
जब मैं 66 का होऊंगा।
और तब भी प्यास होगी तुम्हारी,
जब तुम 96 की होगी।

 

परमीत सिंह धुरंधर

I wanted to kiss you when you I was 16. I want to kiss you still at 36. I would like to kiss you when I will be 66. Even if you will 96, I will kiss you whole night.

धड़कन


तुम उम्र भर के लिए सीने में छुपा लिया है,
तुम जिस्म तो किसी और की बन गई,
पर तुम्हे अपनी धड़कन बना लिया है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

वो सरदार होता है


शेरों में जज्बा होता है, जज्बात होता है,
तब जाके वो सरदार होता है.
दुनिया के लिए वो सिद्धू या बलराज होता है.
पर उसके दिल में बस,
वाहे गुरु का खालसा, वाहे गुरु का पंथ होता है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मेनका और विश्वामित्र की प्रेम कहानी: सदियों से दबी और कुचली एक सच्चाई


ब्रह्मलोक में ब्रह्मा और माँ सरस्वती के सम्मुख देवराज इंद्रा और सारे देव चिंता ग्रस्त मुद्रा में.
इंद्रा: ब्रह्मदेव, अब आप ही हमारे संकट का समाधान कीजिये।
ब्रह्मदेव: इंद्रा, आपके आने से ही हम समझ गए की आप हमें धर्मसंकट में डालने आ गए हैं.
तभी नारद जी प्रकट हुए.
नारद: नारायण – नारायण, कौन सी संकट की बात कर रहे हैं आप ब्रह्मदेव।
ब्रह्मदेव: पुत्र नारद, इंद्रा देव की चिंता विश्वामित्र हैं.
नारद: अट्हास करते हुए. होना भी चाहिए। स्त्री का मोह रखने वाले ही स्त्री के खोने पे उसकी चिंता करते हैं जो वो उसके समीप रहते नहीं करते।
ब्रह्मदेव: नारद, तुम्हारे शब्द मेरे समझ के बहार हैं पुत्र.
नारद: देव राज, वो देव राज हैं जो अपने आश्रितों को, ख़ास कर स्त्रियों को, युद्ध का हथियार मानते हैं. खुद को बचाने के लिए उनका बलिदान देते हैं. रम्भा का बलिदान भी तो अब उन्हें रम्भा के रूप- रंग की याद दिलाता हैं. इसलिए वीर पुरुष नारी के प्रेम में मौत चुनते हैं, नारी का विरह नहीं, देव राज.
इंद्रा: देव मुनि आप हमेशा मुझ पर गलत आरोप लगाते हैं.
नारद: तो आप ही बताइए देव राज, रम्भा के लिए आप क्या कर रहें हैं? आज भी आप यहाँ हैं, तो सिर्फ विश्वामित्र को रोकने के लिए. मुझे पूर्ण विश्वास है की आपने अभी तक ब्रह्मदेव से रम्भा के संकट हरने का निवेदन नहीं किया होगा। आपसे ये उम्मीद ही बेकार है देव राज.
देव राज: ब्रह्मदेव, देख रहे हैं, देवऋषि मुझ पर कुपित है.
ब्रह्मदेव: तो आप बतावो देवराज, मैं क्या करूँ?
देव राज: आप विश्वामित्र की तपस्या भंग में हमरी मदद करें।
बर्ह्मदेव: देवराज, ये मेरा काम नहीं।
इंद्रा: ब्रह्मदेव, मैंने इस बार मेनका को भेजने का निर्णय लिया है.
नारद: ओह्ह, तो क्या देवराज रम्भा का हाल भूल गए या उन्हें मेनका पर विश्वास हैं?
इंद्रा: ना मैं रम्भा को भुला हूँ, ना मुझे ये विश्वास है की मेनका कुछ कर पाएंगी। इसलिए, मैंने काम देव को विश्वामित्र का मन असंतुलित करने को कहा है।
नारद: तो अब आप ब्रह्मदेव से क्या चाहते हैं? क्या आप उनको भी काम देव की तरह मन मोहने का काम कहेंगे।
देव राज: नहीं। मैं तो सिर्फ इतना चाहता हूँ की प्रभु कुछ करें ताकि काम देव और मेनका अपने उद्देश्य में सफल हो कर लौटें।
ब्रह्मदेव: हम क्या करे, देव राज. आप ही बताइए।
देव राज: अगर हमें ज्ञात होता, तो हम क्या आपके पास आते?
कुछ समय के मौन के बाद ब्रह्मदेव बोले, ” ठीक है देव राज, आप जाइये। हम देखते हैं की क्या कर सकते हैं.”
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ब्रह्मदेव: उठो विश्वामित्र, उठो. हम तुम्हारी तपस्या से प्रभावित हैं.
विश्वामित्र: ब्रह्मदेव आपके दर्शन से मैं अहोभाग हुआ.
ब्रह्मदेव: तुम वर मांगो विश्वामित्र और ये तप छोड़ दो.
विश्वामित्र: आप के दर्शन ही मेरा वर है. लेकिन तप कैसे छोड़ दूँ, इसके लिए ही तो राज – पाट छोड़ा है.
ब्रह्मदेव: तुम्हारा तप सृष्टि में प्रलय ला रहा है पुत्र. तुमने रम्भा को पाषाण बन दिया। इंद्रा तुम्हे तप-मार्ग से हटाने के लिए फिर से कोई अप्सरा भेजेगा।
विश्वामित्र: ब्रह्मदेव, आप मेरी चिंता न करे. मेरा मार्ग अब कोई नहीं बदल सकता। मैंने अपनी कितनी पत्नियों को छोड़ा है, उनका शरीर, उनका सौंदर्य, उनका लावण्या, उनका मोह -प्यार सब, कब का छोड़ दिया है. तो इंद्रा की सुंदरियों में वो बात कैसे होगी की मुझे बाँध ले.
ब्रह्मदेव: विश्वामित्र, हम जानते हैं की तुम्हे कोई नहीं डिगा सकता। लेकिन पुत्र, तुम्हारा नहीं डिगना मेरी पराजय होगी। मेरी अपूर्णता होगी। अथार्थ, हम त्रिदेवों की हार होगी। क्या तुम चाहते हो की मैं सारी उम्र सबकी हंसी का पात्र बन के रहूं?
विश्वामित्र: वो कैसे?
ब्रह्मदेव: मैंने स्त्री की सृष्टि ही इसलिए किया है की वो किसी के मन को भी छल ले, उसे अपने वश में कर ले और समय आने पे उसे धोखा दे. इन तीनो गुणों में पुरुष कुछ भी नहीं है स्त्री के आगे. स्वयं, मैं भी अपनी ही सृष्टि, एक नारी, के सौंदर्य से छाला गया और भगवान् शिव ने मेरे पांचवे मस्तक का नाश किया, मुझे उस मोह से मुक्त करने के लिए. क्या तुम चाहते हो, की सारी सृष्टि कहे की जिससे मैं नहीं बच पाया, उसे विश्वामित्र ने प्रभावहीन कर दिया?  ये मेरी और मेरी सृष्टि की हार होगी। उस के बाद मेरे लिए सृष्टि करना असम्भव होगा और प्रलय बिना आये भी सृष्टि रुक जायेगी। पुत्र, मेरी एक विनती स्वीकार करो. मेरे लिए, मेरी सृष्टि के लिए, नारी से हार स्वीकार कर के, मेरी सृष्टि को सम्पूर्ण रहने दो.
विश्वामित्र: तो आप बताइए, मैं क्या करूँ?
ब्रह्मदेव: पुत्र, इस बार जब मेनका आये तुम्हारा मन मोहने, तो उसका हाल रम्भा सा ना करना। तुम उसका प्रणय स्वीकार कर लेना। स्त्री की जीत में तुम्हारी हार नहीं, क्यों की मैंने ऐसी ही सृष्टि बनायीं है. लेकिन मेनका को त्रिस्कार करने से नारी के साथ मेरी भी हार होगी।
विश्वामित्र: इतनी सी बात ब्रह्मदेव। जाइये, यही होगा। मैं मेनका का प्रणय स्वीकार कर लूंगा और जब तक आप कहेंगे उसके साथ गमन करूँगा।
ब्रह्मदेव: धन्य हो विश्वामित्र, तुम धन्य हो. तुम सही अर्थों में ब्रह्मऋषि हो. जिसने आज स्वयं ब्रह्मदेव की मनोकामना पूर्ण की. पुत्र मैं तुम्हे कुछ देना चाहता हूँ. इंकार मत करना।
ब्रह्मदेव: मैं तुम्हे आशीष देता हूँ की तुम सारे ब्रह्मऋषियों के सप्तऋषि बनके सृष्टि के अंत तक इस जगत में उदयमान रहोगे।
विश्वामित्र: जैसी आपकी मनोकामना, ब्रह्मदेव।
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विश्वामित्र की चारो तरफ गुणगान होने से, ब्रह्मणनों में हाहाकार मच जाता हैं. और ब्राह्मणों ने फिर चतुराई दिखाते हुए, इंद्रा के सहयोग से, मेनका को समझाया की वो विश्वामित्र को छोड़ दे. उन्होंने मेनका को ये लालच दिया की आपका नाम घमंडी विश्वामित्र का घमंड तोड़ने के लिए सदा -सदा अमर रहेगा। सृष्टि आपका आभार मानेगी। ब्राह्मणों ने कहा की विश्वामित्र का प्रेम सच नहीं और उसने ब्रह्मदेव के कहने में तुम्हारा पाणिग्रहण किया है. इंद्रा ने मेनका को अप्सराओं में सबसे महान बनने  का लालच दिया।
इंद्रा : मेनका, जो काम रम्भा, उर्वशी नहीं कर सकी. वो तुमने किया। तुम्हारा सौंदर्य अनुपम है. तुम अप्सराओं की अप्सरा हो. क्या तुम चाहती हो की सारी सृष्टि तुम्हे ये कहे की तुम वो काम नहीं कर सकी? तुम्हारा विश्वामित्र के साथ रहना, तुम्हारी हार और विश्वामित्र की जीत होगी।
इंद्रा: सोचो मेनका, एक नारी होकर, क्या तुम नारी के अपमान का बदला नहीं लोगी? इस विश्वामित्र ने ना सिर्फ रम्भा का अपमान किया, बल्कि इसने हज़ारो अपनी पत्नियों को उनके यौवन की आग में अकेला छोड़ दिया। इसने उनका हाथ थामा था, लेकिन ब्रह्मऋषि कहलाने के लिए उनको बीच में छोड़ दिया। क्या तुम उन सभी के अपमान का बदला नहीं लोगी?
इस तरह दोस्तों, मेनका ने सम्पूर्ण नारी जगत के अपमान का बदला लेने के लिए, ना सिर्फ अपने प्रेम को, प्रेमी को छोड़ दिया, बल्कि अपनी नन्ही लड़की को बिना दूध पिलाए, स्वर्ग लौट गई. और अंत में ब्राह्माणवाद की जीत हुई.

 

परमीत सिंह धुरंधर

ग़ालिब बना दिया


जिंदगी के शौक ने काफिर बना दिया,
मजनू बनने चले थे, ग़ालिब बना दिया।
इस कदर उनके ओठों की तलब हुई,
भरी जवानी में ही शराबी बना दिया।

 

परमीत सिंह धुरंधर

मिट्टी की खुशबू


अपने देश में मिट्टी की खुशबू सिर्फ बरसात के बात होती है. परदेश में बिना बरसात, बिना चूल्हा जले ही अपने देश की मिट्टी की खुशबू आती रहती है.

 

परमीत सिंह धुरंधर