वो अपनी बाहों में समंदर रखती हैं.
तभी तो इस गरीबी में भी गुरुर रखती हैं.
ना जिस्म पे सोने – चांदी के गहने
ना लाखों – हजारों का श्रृंगार ना कपड़े
मगर राजा, रंक सभी नज़ारे गराये हैं उसपे
जाने क्या?
मैंले – कुचले, फटे – चिथड़े
अपने दुप्पटे में वो रखती है.
परमीत सिंह धुरंधर