वरसों से जमाई थी हमने दही पे छाली,
काट गयी वो सजाव सिकहर पर चढ़कर साली।
परमीत सिंह धुरंधर
वरसों से जमाई थी हमने दही पे छाली,
काट गयी वो सजाव सिकहर पर चढ़कर साली।
परमीत सिंह धुरंधर
अगर आप होते पापा,
तो अपनी भी शादी होती।
जिंदगी के ग़मों को समझने वाली,
कोई तो एक घरवाली होती।
अपने नयनों से जो मन को,
बाँध लेती।
और आपके दिल की भी,
शहजादी होती।
रातों में चाँद शिकायतें,
जो करती।
मगर दिन में फिर से,
हिरन सी कुलांचें भी भरती।
अगर आप होते पापा,
तो अपनी भी शादी होती।
सेज पे हमारे भी कोई संगनी होती।
परमीत सिंह धुरंधर
मौका ही नहीं मिला समुन्दर से खेलने का,
सितारों ने ही ऐसे उलझा के रख दिया।
शौक भी होता है किसी -किसी को जवानी में बिखरने का,
यूँ ही आशिकों ने इश्क़ में खुद को नहीं मिटा दिया।
परमीत सिंह धुरंधर
अगर आप होते पापा,
तो अपनी भी शादी होती।
यूँ जिंदगी भर की,
अय्यासी ना होती।
आप दिखला देते अब भी राह,
ऊँगली पकड़ कर.
यूँ भटकती जिंदगी ना होती।
झोपडी में ही सही,
अपनी चारपाई पे भी एक लुगाई होती।
यूँ विशाल महलों में,
तन्हाई ना होती।
चूल्हे पे सेंकी रोटी होती,
और उसपे किसी के मायके की घी भी लगती।
यूँ ही विरयानी और पिज़्ज़ा से,
पेट की भूख न मिटती।
रात के समन्दर में,
यूँ साथी न मिलता हर बार.
घर के चार दीवारों में भी,
एक कहानी होती।
वशिष्ठा सी जमी होती,
गृहस्ती।
इंद्रा सी व्याकुल और
अधीर साँसें ना होती।
परमीत सिंह धुरंधर
तेरे अंग – अंग से लग के,
मैं हो गयी विशाल।
थोड़ा काटों धीरे – धीरे राजा,
अभी हूँ मैं नै एक कचनार।
परमीत सिंह धुरंधर
तेरी – मेरी चाहत जरुरी है,
कुछ साँसों की गर्मी है,
और कुछ मज़बूरी है.
जब भी मिलती है तू,
सरक जाता है तेरा आँचल।
कुछ हवाओं का जोर है,
और कुछ तेरी जवानी है.
तेरी हर निगाह, एक क़यामत है,
कोई माने या ना माने, मैं मानता हूँ.
पर तू बनेगी किसी और की ही,
कुछ हुस्न की नियत,
और कुछ मेरी बेबसी है.
परमीत सिंह धुरंधर