वीरों की परिभाषा चमत्कार से नहीं,
परिस्तिथियों के प्रतिकार से होती ही.
साधू-संतों का मान दान से नहीं,
सत्कार से होती है.
परमीत सिंह धुरंधर
वीरों की परिभाषा चमत्कार से नहीं,
परिस्तिथियों के प्रतिकार से होती ही.
साधू-संतों का मान दान से नहीं,
सत्कार से होती है.
परमीत सिंह धुरंधर
वो नजरों के इसारें,
किताबों के बहाने,
वो सखियों संग चहकना।
वो देर तक प्र्रांगण में रुके रहना,
टूटे चपल के बहाने।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, चौहान सा,
और उनके मुख पे, सयुंक्ता का मान था.
वो कई – कई हफ्ते गुजर जाना,
बिना मिले।
और मिलने पे,
बिना संवाद के,पल का गुजर जाना।
वो उनका बिना पसीने के,
मुख को दुप्पटे से पोछना।
और आते – जाते लोगो के मुख को,
आँखों से तकना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, चौहान सा,
और उनके मुख – मंडल पे चाँद सक्क्षात था.
हरबराहट- घबराहट में,
उनके अंगों से मेरा छू जाना।
एक बिजली कोंध जाती थी,
जिसपे उनका पीछे हट जाना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक दौर था,
जिसका नायक मैं, उग्र था चौहान सा,
और उनके मुख – मंडल पे सयुंक्ता का सौम्य था.
वो रक्त-रंजीत मुख पे,
नैनों का झुक जाना।
वो कम्पित – साँसों के प्रवाह से,
उनके वक्षों का उन्नत हो जाना।
उस प्रेम – प्रसंग का भी एक अपना दौर था,
जिसका नायक था मैं, व्याकुल चौहान सा,
उनके मुख – मंडल पे, भय से ग्रसित प्रेम – गुहार था.
यादे ह्रदय को छत – विछत कर देती हैं,
लेकिन यादें सुखद हो तो, गम मिटाने का काम करती हैं.
परमीत सिंह धुरंधर
मैं इतना टूटा हुआ हूँ,
बिखरा हूँ हवाओं में.
वक्त के थपेड़ों में,
मेरा कोई खंडहर भी नहीं बचा है.
लहरों को क्या दोष दूँ?
कच्चे थे जब मेरे ही पाँव।
खूबसूरत दलदलों की ऐसी चाहत थी,
की अब कोई किनारा भी नहीं बचा है.
परमीत सिंह धुरंधर
नादानी ऐसी,
की कोई एक ख्वाब भी ना मिला।
बस राजपूतों में एक मैं ही हूँ,
और किसी को ये रक्त ना मिला।
भार सी हो गयी है ये जिंदगी,
किसी और के लिए जीने में.
इस राह में सब जोधा सी,
मेरे हृदय को,
किसी अजबदेह का प्रेम ना मिला।
परमीत सिंह धुरंधर
बस तन्हाई ही रह गयी,
उम्र के इस ढलान पे.
वो तेरे यौवन का रस,
वो तेरे वक्षों पे मेरे अधर.
बस एक कसक सी रह गयी,
साँसों में,
उम्र के इस ढलान पे.
जिन गेसुओं में उड़ा था,
कभी भौंरा बनके मैं.
इस आजाद अम्बर के उपवन में,
नस – नस में फिर उस कैद की,
चुभन सी उठ रही, उम्र के इस ढलान पे.
परमीत सिंह धुरंधर
इश्क़ वो दुआ है दोस्तों,
जिसकी कोई सुनवाई नहीं।
क्यों की?
हुस्न के आगे कोई और बेवफाई नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर
मेरे इश्क़ को,
एक समंदर ना मिल सका.
उनकी लहरों को कई,
किनारे मिल गए.
मेरे चरित्र का हनन करने वालो,
ज़रा ठहरो।
मेरी हाथों में भी,
इतिहास के कई पन्ने है आ गए.
तुम जो कहते हो,
की ये दो लोगो के बीच की बात है.
मैं नहीं मानता उसे,
जब सुलगती, सिसकती, सुबकती,
अपने जिस्म पे जख्म लेकर।
तुम्हारे चार दीवारों की औरत,
सड़क पे आ जाय.
तुम बजा सकते हो,
ऐसे ना मर्दों की चमक पे ताली।
क्यों की ऐसे परुषों की प्रधानता में ही,
अहिल्या को पाषाण से नारी बनने में,
कई साल लग गए.
परमीत सिंह धुरंधर
मैं समंदर को हलक से पी जाऊं,
ए शिव मुझको दे दो इतनी शक्ति ना.
सारे अमृत त्याग दूँ, और गरल पी जाऊं,
ए शिव मुझको दे दो इतनी शक्ति ना.
जीवन का हर अपमान पी जाऊं,
मुस्करा कर दुश्मनों से मिलूं।
तन्हाई हो बस मेरी, मैं अलख जगा दूँ ना.
ए शिव मुझको दे दो इतनी शक्ति ना.
अब कोई मेनका जो धरती पे अवतरित हो,
तो ना छला जाऊं, मैं विश्वामित्र सा.
राम सा मन को सयम में मैं बाँध जाऊं,
ए शिव मुझको दे दो इतनी शक्ति ना.
परमीत सिंह धुरंधर
भारतीय नारी कभी किसी की नहीं,
और जिसे भी उसका दम्भ है,
उसे अभी तक मिला कोई ज्ञान नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर
भारत की लडकियां,
बन गयीं हैं बिल्ली,
और लड़के, बंदर।
इस पवित्र आँगन में,
अब किसी अहिल्या के लिए,
कोई राम न बचा.
जिस्म के इस खेल में,
रह गए है बस ऋषि गौतम,
और देव इंदर।
अब द्रौपदी भी पुकारे,
को किसे ?
यहाँ तो भीम-अर्जुन,
भी टूटते हैं दुर्योधन सा जिस्म पे,
इन दीवारों के भीतर।
परमीत सिंह धुरंधर