चलते रहना है जीवन में


चलते रहना है जीवन में,
आँधियों में, तूफ़ान में.
डटे रहना है भीष्म सा,
चाहे गोविन्द ही हों मैदान में.
हम राजपूत हैं, झुक सकते नहीं,
चाहे मौत मिले पुरस्कार में.

चलते रहना है जीवन में,
धुप में, छावं में.
डटे रहना है कर्ण सा,
चाहे अन्धकार ही लिखा हो भाग्य में.
कब औरत ने भला किया है?
जो दंश रहे इस विरह का.
मैंने तो रोते देखा है,
विश्वामित्र – परुवरा, सबको प्रेम में.
डटे रहना है राम सा,
बस अपने पथ पे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

Give me the cloth


O baby, O baby,
Give me the cloth.
I want to fly,
High on the road.
Let the stars,
And the moon see,
How I am pretty and beautiful.
Just hold my waist,
And be with me,
I will drive you slowly.

O baby, O baby,
Give me the hold.
I want to fly,
High on the road.
I have no fear,
No shyness,
I am in love,
With this darkness.
O baby, O baby,
Give me the support.
I want to fly,
High on the road.

 

Parmit Singh Dhurandhar

 

 

भीष्म


चलते रहना है जीवन में,
आँधियों में, तूफ़ान में.
डटे रहना है भीष्म सा,
चाहे गोविन्द ही हों मैदान में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मेरा अहंकार


इसी दोस्ती का मुझे इंतज़ार था,
इसी दोस्ती से मुझे प्यार है.
हर समीकरण को बदला है मैंने,
यही तो मेरा अहंकार है.

यूँ ही नहीं मैं जलजला हूँ आँधियों का,
राहें बदलीं हैं तूफानों ने मेरे लिए.
अकेला ही सही मगर खड़ा हूँ मैं,
हिमालय को भी ये एहसास है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

इंतज़ार


गुले – गुलशन को सँभालते हैं वो,
जिनके इंतज़ार में दम निकला मेरा।
ज़माने भर की हया लेकर मिले वो,
जब भी मिले,
बस हम ही से रहा एक घूँघट उनका।

 

परमीत सिंह धुरंधर

घूँघट और बेड़ियाँ


ये तय है की,
नदियों पे बाँध बाँधा जाय.
मगर ये ठीक नहीं की,
उनकी चौहदी तय की जाय.

ये माना की घूँघट भाता है,
हुस्न के मुखड़े पे.
पर ये ठीक नहीं की,
इसे उसकी बेड़ियाँ बनायीं जाय.

 

परमीत सिंह धुरंधर

कच्चे फलों का स्वाद


असर होता है तो असर होने दो,
नजर लड़ रही है तो लड़ने दो.
बेवफा ही सही,
शाखाओं पे मंजर आने दो.

माना की टूटेंगे,
फल पकने से पहले सड़ेंगें।
पर इन ओठों को,
कच्चे फलों का स्वाद लेने दो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

दिल्ली को कोहरे से बचाये; आखिर क्यों?


वो पीपल के झूलों पे दोपहर में झूलना,
वो नाँद पे बैलों का लड़ना,
वो ग्वालिनों का घूम – घूम के दही – दूध बेचना,
वो सर पे घाँस उठाये, बच्चों को कमर पे लिए,
एक समूह में गुनगुनाते औरतों का साँझ को लौटना।

वो सुबह पक्षियों का कलरव करना,
वो बतखों का आँगन ने मोहना तक जाना,
और शाम को लौटना,
वो सुबह अँधेरे में उठकर दूसरों के फूल चोराना,
अंधड़ में बगीचे में दूसरे के जाकर आम लूटना,
फिर उन आमों का आचार और अमावट डालना।

वो शादियों में एक आँगन में समूह का इकठ्ठा होना,
एक चूल्हे पे रात भर खाना बनना,
एक थाली में कइयों का खाना,
धान पे पुलाव पे ठंठ में सोना,
गर्मी में सतुआ, तीसी खाना,
मठ्ठा, माड़ और बेल का रास पीना।

वो धूल उड़ाती, धूल से सनी पगडंडिया,
उन पगडंडियों पे दौड़ना,
वो मेहमान को खेत और पोखर तक सुबह ले जाना,
वो शादी में कुंवारी लड़कियों को छेड़ना, टकराना,
वो भैया के ससुराल देवर का महीनो पड़े रहना।

वो सवर्णिम युग था गावों का भारत में,
जो कब का लूट गया, मिट गया, बर्बाद हो गया.
किसी ने कुछ नहीं किया, ना आवाज उठाई,
और आज चाहते है वो सभी की दिल्ली को कोहरे से बचाये।
आखिर क्यों?

 

परमीत सिंह धुरंधर

शिकायत


मुझे सरहदों से शिकायत नहीं है,
इस शहर को तो हवाओं ने लुटा है.
इसमें दोष मयखाने का नहीं है दोस्तों,
मुझे तो उनकी निगाहों ने पिलाया है.

 

परमीत सिंह धुरंधर