1857


धुआंधार लड़ाई होगी,
सरे-आम लड़ाई होगी.
दिन हो या हो रात,
अब खुले-आम लड़ाई होगी.
तीरों से, भालों से,
बरछी और कटारों से.
ईंट से, पत्थर से,
सबसे पिटाई होगी.
धुआंधार लड़ाई होगी,
सरे-आम लड़ाई होगी.
खेत में, खलिहानों में,
बथानों में, मैदानों में.
पहाड़ो पे, दीवारों पे,
खुले-आम चढ़ाई होगी.
धुआंधार लड़ाई होगी,
सरे-आम लड़ाई होगी.
बच्चे हों या हों बूढें,
या हो नर और नारी.
रंक हो या राजा,
या हो शूद्र, या भिखारी.
मातृभूमि पे बलिदान की,
अब की सबकी बारी होगी.
धुआंधार लड़ाई होगी,
सरे-आम लड़ाई होगी.

परमीत सिंह धुरंधर

सोलह साल


१५ ऑगस्त पे,
ए कलम,
क्या लिखूं,
आज.
तेरी ही स्याही,
अलख जगाती,
और,
गिराती है ताज.
क्या कहूँ उनपे,
जो जला गए स्वाधीनता,
की आग.
क्या नापूँ उनको,
जो माप गए सूरज,
और चाँद।
ये कोई चन्द बिन्दुओं,
को मिलाती रेखा नहीं,
ये तो वो मानचित्र है,
जिसपे लूटा दी,
माताओं ने पानी गोद,
और सुहागिनों ने,
अपनी सुहाग।
ए कलम,
क्या लिखूं,
उन वीरांगनाओं पे,
आज.
जिन्होंने जौहर खेली,
जब उम्र थी, केवल
सोलह साल.

परमीत सिंह धुरंधर 

1957


बहुत सुने हैं,
हमने,
किस्से ५७ के,
संग्राम की.
ऐसे लड़े थे,
मेरे पुरखे,
की,
एक था रंग,
सुबह और शाम की.

परमीत सिंह धुरंधर