विश्वामित्र – तुम मेरा प्रेम ठुकरा कर उस इंद्रा की सभा में नाचना चाहती हो. मैंने वैसे कितने इन्द्रलोक बना कर छोड़ दिए मेनका।
मेनका – तुमने इन्द्रलोक तो जरूर बनाये विश्वामित्र, पर तुम कभी भी स्वयं इंद्रा नहीं बन पाये।
विश्वामित्र – तो क्या तुम्हारा प्रेम सिर्फ इंद्रासन पे बैठे व्यक्ति से है? अच्छा है, मैं कभी इंद्रा नहीं बना! मैं अपने प्रेम को हारते तो देख सकता हूँ, लेकिन बिकते नहीं।
मेनका – प्रेम क्या है? विशवमित्र पहले ये तो जान लो फिर हारने और बेचने की बात करना। मैं तो जिससे प्रेम करती हूँ उसके लिए तुम क्या, रावण के पास भी चली जाऊं। तुम प्रेम की बात करते अच्छे नहीं लगते, जिसने एक पशु को पाने की जिद्द पे अपनी हज़ारों रानियों को छोड़ दिया।
विश्वामित्र – मेनका। मैंने उनको नहीं छोड़ा, वल्कि अपना सबकुछ छोड़ दिया। उनका कुछ नहीं छिना है. और मैंने अपने स्वार्थ के लिए उनका जिस्म और चरित्र तो दाँव पे नहीं लगाया है. मैंने तुम्हारे प्रेमी की तरह उन्हें वशिष्ठ के पास तो नहीं भेजा।
मेनका – हाहाहाहा! विश्वामित्र, चरित्र बुढ़ापे की चादर है, जवानी को इसकी जरुरत नहीं। और मैं तो चिरकाल तक योवन की मालिक रहूंगी।
विश्वामित्र – तो ये कैसा योवन है तुम्हारा मेनका? तुम इस योवन से अपने प्रेमी की प्यास भी नहीं मिटा सकती। जो कभी भटकता हुआ अहिल्या तो कभी दस्यु-सुंदरियों की चरणो में लेटता है. वो तुम्हे नाचता तो जरूर है मेनका, लेकिन वो अधिकार नहीं देता जो देवी शुचि को प्राप्त है.
मेनका-ये चरित्र, ये अधिकार, ये गौरव मिथ्या शब्द हैं तुम जैसे हारे हुए पुरुष ढाल बना लेते हैं अपनी नपुंसकता छुपाने के लिए. जिनके योवन में आकर्षण नहीं, जो प्यास नहीं जगा सकती, वैसी नारियां ही ये धारण करती हैं. चरित्र कभी भी स्त्रियों का आभूषण नहीं रहा. तुम जिसे चरित्रहीनता समझते हो, वो तो स्त्रियों का असली आभूषण है. अगर हम ऐसा नहीं करे तो फिर क्या हमारा योवन। भोग पुरुषों के लिए पाप के रूप में वर्णित हैं वेदों में, हम स्त्रियों के लिए नहीं।
मेनका – विश्वामित्र, मैं तुम्हे उस सुख सुविधा के लिए तो नहीं छोड़ रही, ना ही अमरत्व के लिए स्वयं से इंद्रा के पास जा रही हूँ. मैं तुम्हे छोड़ रही हूँ क्यों की इंद्रा मुझे चाहने लगे हैं. मैं तुम्हे पहले दिन ही छोड़ देती अगर उन्हें मेरी याद आती. मैं इतने दिन तुम्हारे साथ रही, ये मेरा प्रेम नहीं था. ये तो तुम्हारी अज्ञानता हैं, तुमने मेरे मन को कभी समझा ही नहीं की. तुम तो मेरा शोषण करते रहे, मेरा वलात्कार करते रहे.
विश्वामित्र – मेनका!!!
मेनका – हाँ विश्वामित्र, तुमने मेरा वलात्कार किया है इतने साल, हर एक रात, हर एक पल. और तुम कैसे सोच रहे हो की मैं, एक स्त्री, एक वलात्कारी के साथ रहूंगी। मैं तो तुम्हे छोड़ देती अगर वशिष्ठ मुझे चाहते, क्यों की वो ही धरती पे तुमसे श्रेष्ठ हैं.
विश्वामित्र – तो क्या प्रेम सिर्फ श्रेष्ठ आभूषण की चाहत हैं.
मेनका – हा हा !! विश्वामित्र, तुम कभी ज्ञानी नहीं हो सकते। मैं तो कल इंद्रा को भी छोड़ दूँ अगर नारायण, महादेव या ब्रम्हदेव मुझे चाहने लगे. और मुझे इंद्रा इसलिए पसंद है की वो मुझे तुम्हारी तरह, प्रेम-प्रेम कह कर नहीं रोकेगा। वो तो खुश रहेगा ये सोच कर की कुछ पल तो आंनद के मिले।
परमीत सिंह धुरंधर