मुस्कुराना छूट गया


जब से जावानी आई,
मुस्कुराना छूट गया.
ये दर्पण तू सखी हो गयी,
सहेलियों संग खेलना छूट गया.

ख्वाब ऐसे है जैसे,
धीमी -धीमी आंच पे तलती सब्जी,
और धीमी-धीमी आंच पे पकना,
अब मेरा ख्वाब बन गया.

सबकी नजर यूँ देखती हैं,
की अब,
धीमे पावँ चलना,
सीखना पड़ रहा है.
जो दिखाना चाहती हूँ,
वो सब छुपाना पड़ रहा है.
एक चुनर के सरकने पे,
ववाल इतना,
की गलियों-मोहल्लों में,
अब निकलना छूट गया.

मेरे अंगों पे जब फिसल जाती हैं,
जुल्फों से गिरती बुँदे।
तो आसमान के तले,
वो बरसात में भींगना याद आ गया.
जब से जावानी आई,
मुस्कुराना छूट गया.
ये दर्पण तू सखी हो गयी,
सहेलियों संग खेलना छूट गया.

The poem is inspired by a girl sitting alone in the room, looking down and thinking something which I did not get.

परमीत सिंह धुरंधर

बम-बम भोले


बम-बम भोले, बम-बम भोले,
ये कैसा है खेल जिंदगी का.
तन्हा हैं हम, अकेले हैं हम,
कोई नहीं है इस जीवन का.

तुम तो कैलास पे विराज गए स्वामी,
मुझे यूँ धरती पे अकेला छोड़ के.
तुम तो आँखें मुद ध्यान में लीं हो गए,
मुझे दर्द में, पीड़ा में छोड़ के.
बम-बम भोले, बम-बम भोले,
ये कैसा है खेल जिंदगी का.
तन्हा हैं हम, अकेले हैं हम,
कोई नहीं है इस जीवन का.

मुझे माटी से इतना प्रेम दे के,
मुझे माटी से दूर कर गए.
मेरी आँखों में इतना ख्वाब दे कर,
फिर क्यों इसमें इतना आंसूं भर गए?
मैं रोता हूँ, मैं चिल्लाता हूँ,
अब क्या करूँ इस जीवन का?
बम-बम भोले, बम-बम भोले,
ये कैसा है खेल जिंदगी का.
तन्हा हैं हम, अकेले हैं हम,
कोई नहीं है इस जीवन का.

 

परमीत सिंह धुरंधर

शिकायत


इतनी भी शिकायत न करो, की तन्हाई आ जाए,
तुम्हारे सितम के आगे मेरी परछाईं आ जाए.
जरा सोचो कभी,
कब तक मैं तुम्हें यूँ ही सहती और ढोती रहूंगी,
ऐसा न हो की,
मेरी जिंदगी में कहीं कोई और आ जाए.

 

परमीत सिंह धुरंधर

जीवन क्या है?


जीवन क्या है?
नदी है, तालाब है,
धारा है, किनारा है.
कुछ नहीं।
जीवन है निरंतर बहते रहना,
चाहे अपने किनारे ही डूब जाएं,
सागर से मिलने से पहले,
अपनी सारी लहरे सुख जाएँ।

जीवन क्या है?
सत्ता है, समाज है,
सुख है, विलास है.
कुछ नहीं।
जीवन है निरन्तर त्याग करते रहना,
हर दुःख के बावजूद, दूसरों के दुःख,
को मिटाने का प्रयास करते रहना।

जीवन क्या है?
सूरज है, चाँद है,
आसमान है, या तारे हैं.
कुछ नहीं।
जीवन है निरंतर अन्धकार को मिटाने का,
और प्रकाश को फैलाने का प्रयास करना।
जब तक सबके आँगन में रौशनी न पड़े,
जलते रहना, जल कर दूसरों का अन्धकार हरना।

जीवन क्या है?
ज्ञान है, विज्ञान है,
संम्मान है, संस्कार है.
कुछ नहीं।
जीवन है निरंतर सहयोग करना,
पशु बन कर, गुरु बनकर,
सहयोगी बनकर।

जीवन क्या है?
उल्लास है, उत्साह है,
उत्तजेना है, उपकार है.
कुछ नहीं।
जीवन है निरंतर प्रयास करना,
खोज करना की हम किसी के काम आ सके.

जीवन क्या है?
वेद है, उपनिषद है,
गीता है, धर्म है.
कुछ नहीं।
जीवन हैं निरंतर प्रेम करना,
पशुओं के जीवन को भी जीवन समझना।
उनके आँसुंओं के पीछे के दर्द को समझना।

जीवन क्या है?
उत्थान है, उद्भव है,
उन्नति है, उद्देश्य है.
कुछ नहीं।
जीवन है सिर्फ नारी ही नहीं,
हर मादा का संम्मान करना।
उनके परिवार, उनके मातृत्व को समझाना।

जीवन क्या है?
होली है, दीवाली है,
ईद है, लोहरी है.
कुछ नहीं।
जीवन है हर बुराई को मिटाना,
सभयता के नाम पे, धर्म के नाम पे,
ना सताना, ना बांधना और ना रुलाना।
सती-प्रथा, बाल-विवाह की तरह,
जालिकुट्टी और आमानवीय सभ्यताओं का विरोध करना,
त्याग करना, प्रतिकार करना, बहिष्कार करना।

 

परमीत सिंह धुरंधर

शैने: – शैने:


शैने: – शैने: तवं चलसी,
शैने:-शैने: मम हृदयँ कूर्दनं करोति।
तवं चलसी शैने: – शैने:,
मम हृदयँ शैने:-शैने:,
कूर्दनं करोति।
तवं शैने: – शैने: चलसी,
मम शैने:-शैने: हृदयँ कूर्दनं करोति।
चलसी शैने: – शैने: तवं,
कूर्दनं करोति मम शैने:-शैने: हृदयँ ।
चलसी तवं शैने: – शैने: ,
हृदयँ कूर्दनं करोति मम शैने:-शैने: ।
शैने: – शैने: चलसी तवं,
करोति कूर्दनं मम हृदयँ शैने:-शैने: ।

 

परमीत सिंह धुरंधर

 

इंसान


इंसान को इंसान का, बस चाहिए यहाँ साथ,
फिर क्या वक्त अच्छा, और क्या है वक्त ख़राब?
पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सब है इसके बाद.
धन-दौलत, कर्म-ज्ञान, बिन इसके सब है बेकार।
इंसान को इंसान का, बस चाहिए यहाँ साथ.
फिर क्या वक्त अच्छा, और क्या है वक्त ख़राब?

 

परमीत सिंह धुरंधर

दिया


पर्वतों के शिखर पे बादलों का तांडव है,
सागर की लहरों पे हवाओं का बर्चस्व है.
बस एक दिया ही है,
जो जल उठता है अँधेरा मिटाने को.
चाहे आँधियों कैसा भी दौर हो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

विखंडित अक्स


उदास मन,
निराश हो जाता है,
कितनी जल्दी।
मैं भूल नहीं पाता,
उन काँटों को,
जिन्होंने मुझे रुलाया चुभकर.

जवानी की दहलीज़ पे,
तूने एहसास कराया खूबसूरती का.
मगर फिर तूने,
ऐसे तोडा भी इस दिल को,
आज तक उम्मीदों का दामन,
मैंने फिर पकड़ा नहीं।

दिल टूट जाने के बाद,
दिए कितने भी जला लो दिवाली के,
रौशनी नहीं मिलती।
सफलता के हर मोड़ पे,
एक दर्द आ ही जाता है.
वो असफलता और उसका दंश,
किसी सफलता से नहीं मिटती।

मैं कहीं भी छुप लूँ,
किसी के आगोस में.
वो नशा, वो सुकून,
अब कहाँ।
सच कहाँ है किसी ने,
दर्पण के टूटने से अपना ही,
अक्स विखंडित हो जाता है.

 

परमीत सिंह धुरंधर

पहले विष तो पी लूँ शिव सा


शीशम के दस गाछ लगा दूँ,
दो बैल बाँध दूँ नाद पे.
तब बैठूंगा दोस्तों,
शादी के पंडाल में.
रधुकुल में भगीरत हुए,
गंगा को धरती पे लाने को.
जैसे भीष्म हुए बस,
गंगापुत्र  कहलाने को.
मैं भी धरा पे एक धारा बहा दूँ,
जो सींचते रहे मेरी गुलशन को.
तब बैठूंगा दोस्तों,
शादी के पंडाल में.
मेरा लक्ष्य नहीं जो,
साधित हो आसानी से.
वो भी नहीं जिसके पथ के,
असंख्य गामी हो.
पुत्र ही हूँ धुरंधर का,
हर क्षण -क्षण में एक कुरुक्षेत्र है.
पहले विष तो पी लूँ शिव सा,
जग को जीवन -अमृत दे के.
तब बैठूंगा दोस्तों,
शादी के पंडाल में.

 

परमीत सिंह धुरंधर