करने लगा हूँ,
सियासत अब मैं भी,
खिलाता हूँ उसको,
जिसको गलियाता हूँ मैं ही.
दिल्ली को मुक्त,
कराउंगा कहकर,
खून चूसने वालो से,
जोंकों को पालने लगा हूँ,
परमीत अपने तालाब में मैं भी.
Month: December 2013
हुस्न और खंजर
आज आँखों से पिलाया है,
कल ओठों से पिलायेंगी,
उस दिन समझोगे मोहब्बत को,
जब सीने में खंजर को उतरेंगी।
न छलक ही पायेगा आँखों से पानी,
न ओठों से ही कुछ कह पावोगे,
आज बाहों में सुलाया है,
कल राहों में दुत्कारेंगी,
उस दिन समझोगे मोहब्बत को,
जब बाजार में लायेंगी।
जिसके मुस्कान पे छोड़ा है घर और द्वार,
वो ही मुस्करा कर दर-दर पे नचाएंगी,
आज गोद में बिठाया है,
कल पावों कि ठोकर लगायेंगी।
उस दिन समझोगे परमीत मोहब्बत को,
जब हुस्न का असली रंग वो दिखाएंगी।
माँ
एक बेवफा ने लुटा,
मोहब्बत में हमको पिला के,
हर मोड़ पे गिर रहा हूँ,
जवानी में ही मैं लड़खड़ा के.
एक -एक चोट पे मेरे छलकता है,
दर्द पिता कि आँखों में,
और मुस्कुराता है यार मेरा,
मेरे जख्मो पे एक नयी अदा से.
एक बेवफा ने हाँ लुटा,
आँचल में अपने सुला के,
भटकने लगा हूँ अब,
अपनी ही गलियों में आके.
जिसके लिए परमीत ने छोड़ा,
अपनी माँ को रोते हुए,
आज माँ ही बैठी है उसके,
जख्मों को अपने सीने पे लेके.
शंखनाद
जिस दिन समर में मैं कूदा दोस्तों,
सूरज प्रखर हुआ और,
बादल छट गये दोस्तों।
दुश्मनों कि निगाहें, है मुझ पे गड़ीं,
और मेरी नज़रों ने भी निशाना है साधा दोस्तों।
रक्त कि बूंदें थिरकने लगी हैं तन पे,
और जख्मों ने किया मेरा चुम्बन दोस्तों।
मेरा अंत ही है उनका इति श्री,
और उनका अंत ही मेरा जीवन दोस्तों।
खेलें हैं वो भी आँचल में कितने,
खेला हूँ मैं भी अपनी माँ के गोद में,
शीश कटेगा अब मेरा या,
फिर होगा परमीत मेरा शंखनाद दोस्तों।
सैया मेरे मैके में
कि बड़ी भीड़ लगी है सैया मेरे मैके में,
सब पूछ रहे हैं तेरे घर आने पे.
अब जब निकलती हूँ इन गलियों से,
सब बुलाते हैं बैठने, घर-आँगन में.
कि बड़ी रौनक बढ़ी है सैया मेरे मैके में,
सब पूछ रहे हैं तेरे घर आने पे.
पहले भी जलती थी सब्जी चूल्हे पे,
मगर कोई कुछ कहता न था,
अभी तो खाँसी उठी नहीं,
बहने-भाभी, बैठा देतीं हैं हमें झूले पे.
कि बड़े भाव चढ़ें है सैया मेरे मैके में,
सब पूछ रहे हैं परमीत तेरे घर आने पे.
नैतिकता-अनैतिकता
कि हम पागल हो गये जिनकी आँखों में झाँक के,
जाने कैसे लूट गये लोग, उनको बाहों में भर के.
कि आज तक नहीं भुला परमीत, जिस दरिया में डूब के,
जाने कैसे पार हो गये लोग, उन धरावों में तैर के.
कि मिटने लगे हैं हम जिस नैतिकता का पाठ पढ़ कर,
जाने कैसे जी रहें हैं लोग, अनैतिकता से बांध के.
रसिया
आज हमने जमाने को रसिया, आँचल के तले अपने सो लेने दिया,
चैन मिला उनको,
चैन मिला उनको, लूटने पे मेरे,
तो दिल खोल के फिर,
तो दिल खोल के फिर, हमने खुद को लूटने दिया।
आज हमने जमाने को रसिया, योवन के रस से सींच दिया,
फूल खिले उनके,
फूल खिले उनके, उजडने पे मेरे,
तो दिल खोल के फिर,
तो दिल खोल के फिर, हमने खुद को उजडने दिया।
आज हमने जमाने को रसिया, आँखों में अपने काजल बन्ने दिया,
सपने सजे उनके,
सपने सजे उनके, टूटने पे मेरे,
तो दिल खोल के फिर,
तो दिल खोल के फिर, हमने खुद को टूटने दिया।
आज हमने जमाने को रसिया, पावों में अपने मेहँदी लगाने दिया,
आँगन चमका उनका,
आँगन चमका उनका, बिखरने पे मेरे,
तो दिल खोल के फिर,
तो दिल खोल के फिर, हमने खुद को परमीत बिखरने दिया।