मैं किसके साथ करूँ मनुहार बलम


ऐसे टूट गया है दर्पण,
अब कैसे करूँ श्रृंगार बलम?
तुम तो ले आये हो सौतन,
छाती पे कैसे करूँ मुस्ठ-प्रहार बालम।

अदायें मेरी फीकी पड़ी,
और रंग उतरा – उतरा सा.
तुम तो चुम रहे किसी और के वक्षों को,
मैं किसके साथ करूँ मनुहार बलम.

राते काटी नाही जाती सेज पे,
दीवारों को देख के.
तुम कसने लगे हो बाजूँओं में नई दुल्हन,
मैं किसपे रखूं अंगों का भार बलम?

 

परमीत सिंह धुरंधर

 

14 फेब्रुअरी (प्रेम-दिवस) और सौगात


घर छोटा था, छत छोटी थी. परिवार बड़ा था. पहला पाठ जो सास ने पैर रखते पढ़ाया था की किसी का दिल मत दुखाना चाहे कष्ट जितना भी हो. अब काम करते-करते, नहाते -कपडे धोते, सूरज सर पे आ जाता था और अब अपनी ढलान पे था. अपने कपड़े सुखाने के लिए उससे कोई जगह नहीं सूझ रही थी इसलिए उसने देवर के के कपड़े उत्तर कर अपने डाल दिए. उन कपड़ो को उसने प्यार से सहेजा, संवारा और रात को सब काम निपटा के, उनको खिला के, उसके कमरे में देने गयी. वह टेबल पे कुछ पढ़ रहा था. उसने कपड़े उसकी टेबल पर रख दिए. उसके पूछंने पे की आपने क्यों उतरा, उसने कहा, “अरे इतना भी हक़ नहीं मेरा।” धीरे-धीरे वो कपडे देने के बाद थोड़ा वह सुस्त लेती थी, दिल हल्का कर लेती थी. दिन भर चलने के बाद वह उसे एक पेड़ मिलता था जिसकी छाँव में वो सुस्त लेती थी. अब तो वो उस पेड़ से अपनी बाते भी कहती और कभी सो लेती थी. इधर उसको यूँ कमरे में ना पा कर उनको अजीब लगता, बेचैनी बढ़ती, शक बढ़ता जो धीरे -धीरे उनके मन के आँगन में पनप रहा था. उसकी हंसी उस कमरे से निकल कर अब उनके आँगन में पनपे पौधे को सींच रही थी. अब तो उसके चेहरे पे एक अलग ख़ुशी देख के उनका पेड़ एक चक्रवात सा महसूस करता। अब उसका यूँ रातो को सजना, तेल लगाना उनको अखरता। पेड़ धीरे -धीरे सींचते, बढ़ाते अब बलसाली बन चूका था, गगन को छू रहा था.

आज भी १४ फेब्रुअरी को वो सज के इंतज़ार कर रही थी. आज उसने पहले ही कपड़े जा के दे दिए थे. उसने ही कुछ दिन पहले बताया था की आज का दिन ख़ास है प्यार के लिए. इसमें अपने ख़ास को कुछ ख़ास सौगात देते हैं. उसने ही समझाया था की कैसे आसान है उसके लिए ये ख़ास दिन मनाना की सुको कोई रोकेगा नहीं। लेकिन बहार उस जैसे लोगो के मिलने पे, समाज-सुधारक, चिल्लाने लगते हैं, लाठी चलाते है, शादी करवा देते है. सीधी सी औरत, जिसकी दुनिया छोटी थी, उसने कुछ नहीं कहा और सपने सजाने लगी की वो भी अपना प्रेम -दिवस मनाएगी। आईने में अपने केसुओं को देखते इंतज़ार कर रही थी, उनके आने का, अपने सौगात मांगने का और उनको सौगात देने का. वो आये, दरवाजा खोला, बिस्तर पे बैठे, वो मुड़ी, इठलायीं, जूठ्मूठ का मुह बनाया। उन्होंने एक कागज़ का बण्डल निकला, उसको हाथ में दिया। उसने इधर-से-उधर उसको पलटा और टेबल पे रखते पूछा, ” ये क्या है? और कहाँ थे अब तक, मैं इंतज़ार कर रही थी?” उसने कहा तुम्हारे लिए है और मुझे हस्ताक्षर कर के दे दो.
उसने कहा,” क्या है लेकिन ये?” उसने एक जबाब दिया,”तलाक के कागज़।”

 

परमीत सिंह धुरंधर

तलाक


रिश्ते सुधर लो,
कब तक यूँ उनसे उलझते रहोगे?
क्या, इरादा है?
कब तक यूँ इन गलियों में भटकते रहोगे?
दिन तो कट ही जायेगी,
कहीं किसी के दूकान पे,
चाय का सवाद ले कर.
किसी घने वृक्ष के नीचे,
तन डाल कर.
सोचों, रातों का क्या करोगे?
कब तक यूँ अंधेरों में,
दिया जलाओगे?

(I would prefer to live with you,

to a life with a new.

With all pain and happiness,

would prefer to be with you.)

परमीत सिंह धुरंधर