सुरक्षा की उमीदें पतियों से लगा कर,
द्रौपदी बैठी थी श्रृंगार करने,
युधिष्ठिर से धर्म निभाकर।
अपने सामर्थ्य को भुला दिया,
पिता-भाई के बल को देखकर।
आंसू बहा रही थी,
अधर्मियों को धर्म बता कर।
परमीत सिंह धुरंधर
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सुरक्षा की उमीदें पतियों से लगा कर,
द्रौपदी बैठी थी श्रृंगार करने,
युधिष्ठिर से धर्म निभाकर।
अपने सामर्थ्य को भुला दिया,
पिता-भाई के बल को देखकर।
आंसू बहा रही थी,
अधर्मियों को धर्म बता कर।
परमीत सिंह धुरंधर
एक नारी का,
अपमान हुआ.
वीरो के सभा में,
खुले आम हुआ.
नेत्रहीनो ने भी,
बंद कर ली आँखे.
इंसान का,
ऐसा पतन हुआ.
ससुर-बहु,
पिता-पत्नी,
हर एक रिश्ता,
शर्मशार हुआ.
भारत की पावन,
धरती पे,
वेदो के,
ज्ञानियों के समक्ष,
ब्राह्मणो ने लाज,
मिटा दी.
और,
राजपूतों ने अपना पौरष.
जुल्फों से घसीटा,
एक अबला को,
और,
स्तन पे उसके,
प्रहार हुआ.
जिस तन ने,
सींचा है शिशु को,
उस तन पे,
भीषण वार हुआ.
पतियों ने किया,
पत्नी का,
वय्यापार जहाँ,
सत्ता के,
सत्ताधीशों ने,
न्याय के,
पालनहारों ने,
फिर उसको,
वासना का बाजार दिया.
जब छीनने लगा,
आँचल तन से,
और,
आभूषण उतरने लगा,
न वीरों के सभा,
में किसी ने,
मुख खोला.
न आँगन से ही,
प्रतिकार हुआ.
जब दर्द और,
अपमान से, परमीत
एक नारी ने,
चीत्कार किया.
जहाँ पतियों ने खेली बाजी,
अपनी किस्मत बदलने को,
और दावँ पर लगाया पत्नी को,
बस खुद को बचाने को.
जब हुआ अपमान उस स्त्री का,
तो नजरे झुका ली सबने, परमीत
बस धर्मराज कहलाने को.