शौक इतना क्यों रखते हों?


शौक इतना क्यों रखते हों?
जब संभाल नहीं पाते हो कमर को.
नजर से ही छू लिया करो
क्यों बे – बजह कपकपाते हो उँगलियों को.
उम्र भर का साथ
जब मिटा ना सका तुम्हारी प्यास को.
बिना दांतों के क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

इसे मत समझों अय्यासी मेरी तुम


जब जवानी मिली तो गुनाहों में डाली
जब बुढ़ापा आया तो पैगम्बरों की छानी।

अब जब मिटने के कागार पे हूँ दोस्तों
तो लबों की प्यास बुझाने की ठानी।

इसे मत समझों अय्यासी मेरी तुम
नादान मैंने अब जाके जीवन, जीने की चाही।

 

परमीत सिंह धुरंधर

लबों पे अपने बस बांसुरी ही रखता हूँ


मैं अपनी उमिद्दों का समंदर रखता हूँ
तन्हा हूँ मगर मैं यही शौक रखता हूँ.

शहनाइयाँ तो कितनी हैं बाजार में
मगर मैं लबों पे अपने बस बांसुरी ही रखता हूँ.

ना उम्मीदी के इस दौर में जो ज़िंदा है वही राजपूत
तख़्त ना सही पर रगों में वही लहू रखता हूँ.

वो गैरों के बाहों में झूल गयीं जाने किन ख्वाइशों के तले
मैं आज ब्रह्माण्ड के कण – कण पे अपनी शौहरत रखता हूँ.

 

परमीत सिंह धुरंधर

उसे सुबह में हेलो भी नहीं बोल पाया


टूट कर भी मैं बिखर नहीं पाया
मौला जाने कैसी हसरत थी तेरी?
जिसे चूमा जी भरकर रातों को
दिल छोड़िये,
उसे सुबह में हेलो भी नहीं बोल पाया।
मौला लिख रहा है जाने तू कैसी जिंदगी?
आज तक रातों को मैं सो नहीं पाया।

 

परमीत सिंह धुरंधर

उम्र ही है ऐसी अभी


ना नजर से नजर को मिलाया करो
उम्र ही है ऐसी अभी, दुरी रखा करो।
चाहत है तुमको मेरे इन लबों की
तो जमाने भर में ना गाया करो.

 

परमीत सिंह धुरंधर

पागल कहता है जमाना मुझे


मत पूछो शहर में मयखाना किधर है?
हर एक गली में है यादें उनकी।
जिधर चाहो, उधर बैठ जाओ
भला कब मिटी है प्यास उनकी।
छोड़ दिया हैं मैंने अब तो भटकना
मिला ना दुबारा फिर वो साकी।
पागल कहता है जमाना मुझे
ख्वाब अब भी उन्ही के लबों की.

 

परमीत सिंह धुरंधर

 

 

दर्द उनका अधूरा सा है


दर्द उनका अधूरा सा है
जिंदगी में हम जो मुस्कराने लगे.

मेरी खामोशी को कमजोरी समझकर
वो महफ़िल थे अपनी सजाने लगे.

उस चाँद पे है मायूसी के बादल
जब फकीरी में भी हम गुनगुनाने लगे.

सवरना उनका अधूरा सा है
गजरा फिर जुल्फों में हम लगाने लगे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मैं ऐसे तो शर्म उतार ना पाउंगीं


तू नजर तो रख मेरे जिस्म पे
दिलों में अहसास खुद-ब-खुद आ जायेगी।
तू चाहत क्यों रखता है मेरी अपने सेज पे?
ख़्वाबों में बिन बुलाये ही आ जाउंगी।

कुछ फासले बन ही जानते हैं राहों में
मंजिलों पे समेट लेने को उन्हें.
तू क्यों थामना चाहता हैं इन राहों में?
मैं ऐसे तो शर्म उतार ना पाउंगीं।

 

परमीत सिंह धुरंधर

जो रणभूमि में अपनों पे गांडीव उठाने लगे


हसरते उन्ही की दिलों में रखिये
जिनकी यादों में हैं पीने लगे.
कब तक संभालोगे जाम हाथों से
आँखों से दर्द जब हैं छलकाने लगे.
अधूरा है जीवन सब का यहाँ
चाहे राम हो या गुरु गोबिंद सिंह जी.
राजपूत वो ही है सच्चा
जो रणभूमि में अपनों पे गांडीव उठाने लगे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मेरे बैलों को कोई पशु ना कहे


उनके जिस्म पे जो
ये गहने हैं
पैसों से तो सस्ते
पर पसीने से बड़े महंगे हैं.

कैसे उतार के रख दे?
वो ये गहने अपने जिस्म से
चमक में थोड़ी फीकी ही सही
मगर इसी चमक के लिए
मेरे बैल दिन – रात बहते हैं.

मेरे बैलों को कोई पशु ना कहे
हैं की उन्ही के बल पे
मेरे घर के चूल्हे जलते हैं
और उनके कर पे वस्त्र
और गहने चमकते हैं.

 

परमीत सिंह धुरंधर