एक बुद्ध ढूंढ रहा हूँ


गहन अन्धकार में
एक सूक्ष्म प्रकाश ढूंढ रहा हूँ.
मैं इस भीड़ में
एक बुद्ध ढूंढ रहा हूँ.
हर ज्ञान, हर रसपान
के बाद जीवन के रहस्य को
भेद पाने का संसाधन ढूंढ रहा हूँ.
मैं इस भीड़ में
एक बुद्ध ढूंढ रहा हूँ.

 

मिले बुद्ध, तो पूंछू,
ऐसा क्या था की यशोधरा का त्याग कर
आप महान बन गए?
और सीता का परित्याग कर
राम आलोचना का पदार्थ।
मैं पूंछू, हे देव,
ऐसा क्या था की नन्हे राहुल को रोते छोड़कर,
आप सम्म्मान के अधिकारी बन गए?
और लव-कुश के पिता होने मात्र से
राम, सर्वत्र निंदा के पात्र।

 

जिसने अहिल्या का मान रखा,
जिसने एक पत्नी व्रत का पालन किया।
जिसने पिता के वचन का मान रखा,
जिसने सबसे मित्रवत व्यवहार किया।
ऐसा क्या गलत किया उस मानव ने?
जो जीवन के अंत में उसे इतनी
पीड़ा, अपमान और दुःख ने ग्रसित किया।
और आपने कैसे इस संसार में खुद को,
इन बंधनों, कलंको से मुक्त किया?

 

परमीत सिंह धुरंधर

बुद्ध और बौद्ध


जो इंसान हार कर जीवन से,
बस मुस्करा रहा है अपनी बेबसी पे,
देखता है ये जमाना अचरज से की क्या ,
छुपाया है इसने अपने झोले में?
आँखे घुरतीं है, लाखो निगाहें तरेरती है,
अनगिनत खामोश सवाल जब घेरते हैं,
तो हारा इंसान भागने लगता है जमाने से,
और पीछे – पीछे उसके, एक भीड़ चलती है,
मन में बेचैनी लिए की क्या,
छुपाया है इसने अपने झोले में?
पहले उसका प्यार छिना, फिर गरीब किया,
भूख से बदहाल करके, सड़को पे छोड़ दिया,
और आज एक झोले के पीछे, आज इस जाामने ने,
अपनी औरत, दौलत, सब छोड़ दिया,
अब प्यास जिस्म की नहीं, दौलत की नहीं,
इस बात की है, की क्या छुपाया है इसने अपने झोले में?
हारा इंसान भागता रहा, झोला फट गया,
चिथड़े – चिथड़े हो कर उड़ गया,
पर भीड़ बढ़ती रही, उमड़ती रही,
मन का बोझ बढ़ कर पहाड़ हो गया,
की आखिर क्या छुपाया था इसने अपने झोले में?
अंत में फिर हारकर हारा इंसान बैठ गया,
और बुद्ध बन गया,
और ज़माने की भीड़ बौद्ध बन गयी,
मगर खोज अब भी जारी है,
की क्या छुपा था उस झोले में?

 

परमीत सिंह धुरंधर