भीड़ में बहती जो वो नीर तो नहीं
तन्हाई में सूखती वो पीर तो नहीं।
टूटते तारें आसमाँ के
कहीं उनका निशाँ तो नहीं।
व्याकुल मन जिसे पल – पल पुकारे
वसुंधरा पे वो कहीं तो नहीं।
इससे बड़ी पराजय क्या होगी?
जब जीत की कोई लालसा ही नहीं।
उतार दो तुम ही ये खंजर मेरे सीने में
इन धड़कनों को तुम्हारी वेवफाई पे यूँ यकीं तो नहीं।
मुझे नहीं पता ए शिव तुम कहाँ हो?
मगर कोई और नाम सूझता भी तो नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर