मैं नहीं जानता की प्रेम का,
इजहार कैसे और कब होता है.
मैं नहीं जानता की दिल का,
विश्वास कैसे जीता जाता है.
मैं नहीं जानता की कोमल ह्रदय को,
कैसे सहेजा और संभाला जाता है.
मगर, ये अब जान गया हूँ की,
की इन आँखों में देखते हुए,
जिंदगी को जीना चाहता हूँ.
इन आँखों में डूबकर ,
हर इक पल रहना चाहता हूँ.
इन आँखों के सपनो को,
अपना कहना, अपना बनाना चाहता हूँ.
इन ओठों की मुस्कराहट को,
सहेजना, सम्भालना चाहता हूँ.
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मुझे नहीं मालुम कब मेरी जिंदगी की,
राहें समतल होंगी।
मुझे नहीं मालुम कब बहारें मेरे,
क़दमों को चूमेंगी।
मुझे नहीं मालुम तुम कब तक,
मेरे साथ चलोगी।
मगर, मैं अब तुम्हार्री बाहें,
थामना चाहता हूँ.
हर पथरीली, कंटीली राहों पे,
तुम्हे गोद में उठा कर चलना चाहता हूँ.
अनुकूल – प्रतिकूल, वक्त के हर थपेड़ों में,
तुम्हे हँसते, खिलखिलाते, देखना,
तुम्हे सम्भालना चाहता हूँ.
तुम्हे अपनी नदी और खुद को,
तुम्हारा किनारा बनाना चाहता हूँ.
तुम्हारी धाराओं के हर मिलन पे,
मैं थोड़ा – थोड़ा टूट कर,
तुम में मिलना चाहता हूँ.
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मेरा प्रयास हो तुम,
मेरा होसला हो तुम.
मेरे आखिरी क्षणों तक,
मेरा ये ही प्रयास रहेगा।
तुम्हे पाने की,
तुम्हे मुस्कराने की.
तुम्हे सहजने की,
तुम्हे सँभालने की.
तुम्हे हर सुकून,
खुद को बेचैन रखना चाहता हूँ.
तुम्हे हर ख़ुशी,
खुद को गम देना चाहता हूँ.
मैं अपनी हर निराशा को,
तुम्हारे ओठों का ख़्वाब देना चाहता हूँ.
राते अमावस की हो या पूर्णिमा की,
मैं हर रात तुम्हारे साथ,
एक नया दीप जलाना चाहता हूँ.
मुझे नहीं मालुम तुम्हे कैसे यकीन दिलाऊं,
मगर, मैं तुम्हारे पावों को,
अपने खून की मेहंदी देना चाहता हूँ.
परमीत सिंह धुरंधर
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