मासिक -माहवारी


हम ही खगचर, हम ही नभचर
हमसे ही धरती और गगन
हम है भारत की संतान, मगर
भारत को ही नहीं है खबर हमारी।
पल -पल में प्रलय को रोका है, और
पल- पल ही है प्रलय सा हमपे भारी।

बाँध – बाँध के तन को अपने
काट – काट के पत्थर – पाषाण को
सौंदर्य दिया है जिस रूप को
उसके ही आँगन से निकाले गए,
जैसे मासिक -माहवारी।
पल -पल में प्रलय को रोका है, और
पल- पल ही है प्रलय सा हमपे भारी।

समझा जिनको बंधू – सखा
उन्होंने ना सिर्फ मुख मोड़ा
हथिया गए धीरे – धीरे, मेरी किस्मत,
तिजोरी, और रोटी।
पल -पल में प्रलय को रोका है, और
पल- पल ही है प्रलय सा हमपे भारी।

सत्ता भी मौन खड़ी है, भीष्म – द्रोण, कर्ण सा
निर्वस्त्र करने को हमारी पत्नी, बहू और बेटी
रह गया है बाकी
अब केवल कुरुक्षेत्र की तैयारी।
पल -पल में प्रलय को रोका है, और
पल- पल ही है प्रलय सा हमपे भारी।

परमीत सिंह धुरंधर 

वोट देना है देश के लिए


हर तरफ है धुंआ – धुंआ, हर तरफ एक आग है
वोट देना है देश के लिए, यही आज की माँग है.

जिसने भेजा है उनको मंदिर-मंदिर, गुरुद्वारे
ये वही हैं जिन्होंने हिन्दू को कहा आतंकवाद है.

माँग रहे है वो स्मृति से हर पल उसकी शिक्षा का प्रमाण
जिनका हर प्रमाण -पत्र एक जालसाजी का निशान है.

हर चेहरा है कालिख से धुला, हर दामन में दाग है
वोट देना है देश के लिए, यही आज की माँग है.

परमीत सिंह धुरंधर

8 नवम्बर 2016 की रात (नोटबंदी)


भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार,
नस – नस में था जो व्याप्त।
कण – कण तक था,
जिसका विस्तार।
मन – मस्तिक,
आस्तिक – नास्तिक,
नर – नारी
पूरब – पश्चिम, उतर – दक्षिण,
सभी वर्ग, सभी धर्म,
भारत के थें,
इससे आक्रांत और बीमार।

इसका रूप नहीं था,
इसका रंग नहीं था,
पर था,
जो सर्वव्यापी और निराकार।
भारतियों ने ही जिसे निर्मित किया,
आज जो भारतियों को ही था दंश रहा।
गरीब – कमजोर, असहाय, बेरोजगारों,
पे जो नित – प्रतिक्षण कर रहा था,
अट्ठहास ले – ले कर के प्रहार।

ऐसे वातावरण में,
जब सभी हतास थें, जब सभी निराश थें।
डूब चुकी थी, भ्रष्ट आचरण में,
जब अपनी ही सरकार, और अपने ही कर्णधार।
जब मुस्करा रहा था, बढ़ रहा था,
दंश रहा था, भ्रष्टाचार का वो राक्षस,
हर भारतीय को, लेकर सुरसा सा आकार।
जब असंभव लग रहा था,
रोकना उसे, बांधना उसे,
अनुशासित करना उसे।
जब बुद्धिजीवियों ने उसे अमर कहा,
कहा “वो अपने जीवन का अभिन्न अंग है.”
अतः वो मिट नहीं सकता,
ना ही रुक सकता है उसका प्रसार।

तब ८ नवम्बर, २०१६, को पहली बार,
वो राक्षस, भय से आक्रांत हुआ।
अंधकार के उस प्रहरी पे,
अंधकार में ही प्रहार हुआ।
काश्मीर से कन्या कुमारी,
कच्छ से बंगाल तक,
एक नए सूर्योदय का,
हर आँगन में, हर जन को, आभास हुआ।
क्या अमीर? क्या गरीब?
औरत – मर्द, बच्चे – बूढ़े,
सब ने अपने ठंढे रुधिर में,
नयी उष्मा – ऊर्जा का आभास किया।
भारत के कोने – कोने से,
जन – जन ने भ्रष्टाचार के खिलाफ,
भारत के प्रधानमंत्री के अव्वाहन पे,
इस युद्ध में शंखनाद किया।

एक रणभेरी बजी, एक ऐसी हुंकार उठी,
की धरती से आकाश तक,
हर भ्रष्ट मन आक्रांत हुआ।
वो छुपने लगें, वो भागने लगें,
रेंग – रेंग कर कराह उठें।
काले धन के विरुद्ध, इस धर्मयुद्ध में,
जनता ने जब कष्ट सह कर,
मुस्करा कर, अपने सुखों का त्याग किया।
वो मूर्क्षित हैं, विस्मित हैं,
दिग्भ्रमित हैं, चिंतित है,
खुद को बचाने के लिए,
अपने काले धन को समेटने – सहेजने के लिए।
मगर हम भी सचेत हैं, युद्धरत हैं, प्रयासरत हैं,
भ्रष्टाचार और काले धन को,
पूर्ण रूप से मिटाने के लिए।
और अपने भारतवर्ष को,
सुगन्धित – सुसज्जित – सुविकसित बनाने के लिए।

तो आवों मेरे देश-प्रेमियों,
इस मशाल को जलाएँ रखें,
इस त्यौहार को मनाते रहें।
और प्रण करें,
ना भ्रष्ट बनेंगे, ना भ्रष्टाचार सहेंगें।
ना काला धन सहेजेंगे, ना समेटेंगे।
ना खाएंगे और ना काला धन खाने देंगे।
अपने अंतिम साँसों तक,
अपने भारत को स्वच्छ रखेंगे,
आँगन में, उपवन में, तन से, मन से,
भ्रष्ट आचरण और काले धन से।

 

परमीत सिंह धुरंधर