या तो नजर ही झुकाया कीजिये,
या दुप्पटा ही रखिये सीने पे.
कुछ तो हो आसरा गरीब को,
वरना मुश्किल हैं जीने में.
महंगाई ऐसे बढ़ रही है,
कैसे पुरे करूँ दिल के सपने।
या तो घर ही चला लूँ.
या पैसे उड़ा दूँ पीने में.
परमीत सिंह धुरंधर
या तो नजर ही झुकाया कीजिये,
या दुप्पटा ही रखिये सीने पे.
कुछ तो हो आसरा गरीब को,
वरना मुश्किल हैं जीने में.
महंगाई ऐसे बढ़ रही है,
कैसे पुरे करूँ दिल के सपने।
या तो घर ही चला लूँ.
या पैसे उड़ा दूँ पीने में.
परमीत सिंह धुरंधर
बस ओठों से गाली ही नहीं देती,
स्वाद भी तो चखाती हूँ,
जिसके लिए देव, दानव, ऋषि – मुनि,
सब तरसते हैं.
ओठों से सिर्फ सुनाती ही नहीं हूँ न,
पिलाती भी हूँ न वो रस,
जिसके लिए देव कर्तव्य,
तपस्वी तपस्या भूल जाते हैं,
परवाने मिट जाते हैं.
ओंठों से सिर्फ मांगती ही नहीं,
देती भी तो हूँ वो अमृत,
जिसके लिए जीवन की मिरीचिका,
में भटकते रहते हैं, और जिसके लिए,
घर – परिवार भी छूट जाते हैं.
परमीत सिंह धुरंधर
शादी हो गयी बेबी की,
तो बेबी बोली, ऐ विक्की।
चल मना लें हम हनीमून,
शोर – शराबे से कहीं दूर.
मेरी कमर पे हो तेरे बाज़ू,
तेरी साँसों पे हो मेरा काबू।
सुबह – शाम के चुंबन के साथ,
चलेगा गरमा – गरम चाय पे चनाचूर।
मेरी जवानी ढल जाए,
उसके पहले संभल ले,
मैं उड़ जाऊं, उसके पहले बाँध ले.
नौ – महीने में दे दूंगी एक लल्ला तुझको,
खिला – खिला के लड्डू मोतीचूर।
परमीत सिंह धुरंधर
इस शहर के भौरें बहुत शातिर हैं,
इनसे नजर न लड़ाना।
तुझे गुमान बहुत है,
इन्हे अरमाँ बहुत है.
परमीत सिंह धुरंधर
तुझे गली -गली की खबर है,
हम गली – गली का शौक रखते हैं.
तू किसी गली में दुप्पट्टा गिरा के देख,
हम कैसे – कैसे शौक रखते हैं.
परमीत सिंह धुरंधर
ये माना,
इस शहर को तेरा नशा है.
मगर ये तेरा हुस्न,
उसका जादू नहीं,
तेरी कोई अदा नहीं।
ये तो हमारा,
शहर ही जवाँ है.
परमीत सिंह धुरंधर
ऐसे टूट गया है दर्पण,
अब कैसे करूँ श्रृंगार बलम?
तुम तो ले आये हो सौतन,
छाती पे कैसे करूँ मुस्ठ-प्रहार बालम।
अदायें मेरी फीकी पड़ी,
और रंग उतरा – उतरा सा.
तुम तो चुम रहे किसी और के वक्षों को,
मैं किसके साथ करूँ मनुहार बलम.
राते काटी नाही जाती सेज पे,
दीवारों को देख के.
तुम कसने लगे हो बाजूँओं में नई दुल्हन,
मैं किसपे रखूं अंगों का भार बलम?
परमीत सिंह धुरंधर
चलो हम इश्क़ करें
किसी अनजाने शहर में.
जहाँ तुम्हे भय हो,
अनहोनी का हर पल.
और मुझे डर हो,
अकेलेपन से.
जहाँ तुम इंतज़ार करो की,
कब कुछ आवाज हो,
इन खाली चार दीवारों में.
जहाँ मैं भी जल्दी – जल्दी घर आऊं,
ऊबकर अनजाने चेहरों के बीच से.
चलो हम इश्क़ करें
किसी अनजाने शहर में.
जहाँ तुम्हे भय हो,
मेरे फंस जाने का.
जहाँ मुझे डर हो,
तुम्हारे उड़ जाने का.
परमीत सिंह धुरंधर
मैंने समुन्द्रों से कह दिया है,
की नदियों को ना छेड़ें।
पर मैं नदियों से नहीं कहूंगा,
की वो किनारों को ना तोड़ें।
मैंने कहा है समुन्द्रों से,
वो नदियों को समझे।
उनका सम्मान करें,
उनको अधिकार दें,
उनके जज्बातों का मान रखें।
और मैंने ये भी कहा है समुन्द्रों से,
की वो इसके बदले नदियों से कोई आशा ना रखें,
वफ़ा की,
समझदारी की,
सम्म्मान की,
या उनके भावनाओं को समझने की.
और ना ही मैं नदियों से ये कहूंगा,
की वो ऐसा करने की कोसिस करें।
परमीत सिंह धुरंधर
गहन अन्धकार में
एक सूक्ष्म प्रकाश ढूंढ रहा हूँ.
मैं इस भीड़ में
एक बुद्ध ढूंढ रहा हूँ.
हर ज्ञान, हर रसपान
के बाद जीवन के रहस्य को
भेद पाने का संसाधन ढूंढ रहा हूँ.
मैं इस भीड़ में
एक बुद्ध ढूंढ रहा हूँ.
मिले बुद्ध, तो पूंछू,
ऐसा क्या था की यशोधरा का त्याग कर
आप महान बन गए?
और सीता का परित्याग कर
राम आलोचना का पदार्थ।
मैं पूंछू, हे देव,
ऐसा क्या था की नन्हे राहुल को रोते छोड़कर,
आप सम्म्मान के अधिकारी बन गए?
और लव-कुश के पिता होने मात्र से
राम, सर्वत्र निंदा के पात्र।
जिसने अहिल्या का मान रखा,
जिसने एक पत्नी व्रत का पालन किया।
जिसने पिता के वचन का मान रखा,
जिसने सबसे मित्रवत व्यवहार किया।
ऐसा क्या गलत किया उस मानव ने?
जो जीवन के अंत में उसे इतनी
पीड़ा, अपमान और दुःख ने ग्रसित किया।
और आपने कैसे इस संसार में खुद को,
इन बंधनों, कलंको से मुक्त किया?
परमीत सिंह धुरंधर