जब से चढ़ी है जवानी तुमपे,
शहर – शहर तेरा दीवाना है.
झूम रहें हैं पंडित और काजी,
तेरे नजरों का पैमाना है.
सुबहा की धुप सी,
तुम जो निकलती हो छत पे.
क्या बच्चे और क्या बूढ़े?
सबका बस तू ही एक निशाना है.
भौरों ने भी छोड़ दिया है,
कलियों को पीना।
जब से तेरे ओठों को छूकर,
पवन हो गया रसीला है.
दुप्पट्टा रखो या,
मुख को छुपा लो घूँघट में.
कसम खा के बैठें हैं,
उठा के तुझे ले जाएंगे।
इस जीवन का अब बस,
तेरी बाहें ही ठिकाना है.
परमीत सिंह धुरंधर