वो जो कल तक गले लगाते थे महफ़िल में उछल कर
आज हँसते हैं मेरी हर रुस्वाई पे.
हुस्न समझता ही नहीं इश्क़ में
की मौत अच्छी है उसकी बेवफाई से.
ऐसे टूटा इश्क़ में की पिता भी रो पड़े
दर्द ही ऐसा था, फिर उठ न सके चारपाई से.
मुझे मंजिल मिले या ना मिले खुदा
किसी और को ना दिखाना आइना उसकी बर्बादी के.
परमीत सिंह धुरंधर