शौक समंदर का


शौक समंदर का मुझे लहरों में ले गया
साहिल से दूर मझधार में ले गया
सल्तनत ना रही मेरी पर दर्प-गर्व वही है
राजपूत होने का अंश और गंभ वही है.
हार-जीत गोरो को बदल सकती है
पृथ्वीराज निर्भय है, और अब भी वही है.

जीवन पे मौत का भय कैसा?
उबाल हो नशों में तो फिर पड़ाव कैसा?
अमृत की मोह में परिश्रम का क्या मोल
गरल का पान शिव को नीलकंठ बना गया.

RSD

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