ना सम्भालों नजर को शर्म से आकर इस मुकाम
बहकने लगे हैं कदम तो फिर कैसा – कोई पड़ाव?
खेल लेने दो हमें इन जुल्फों से बस एक शाम
न जाने कब जहर सा काम कर दे, तुम्हारी मोहब्बत का ये जाम?
परमीत सिंह धुरंधर
ना सम्भालों नजर को शर्म से आकर इस मुकाम
बहकने लगे हैं कदम तो फिर कैसा – कोई पड़ाव?
खेल लेने दो हमें इन जुल्फों से बस एक शाम
न जाने कब जहर सा काम कर दे, तुम्हारी मोहब्बत का ये जाम?
परमीत सिंह धुरंधर