शहर अंदाज बदल रहा है,
चाँद आकार बदल रहा है,
हम बूढ़े क्या हो रहे?
हर कोई अपनी जबान बदल रहा है.
घर, बाहर और बाजार तक,
आने – जाने और मिलने पे,
लोग नजरे चुरा रहे हैं.
कल तक जो इंतज़ार करते थे मेरा चाय पे,
अब वो हमसे छुप के,
किसी और के साथ, चुस्की उड़ा रहे हैं.
अपने – पराये, नौकर – चाकर,
अब और क्या कहे किसी की?
अब तो दाल में घरवाले बिना मुझसे पूछे,
नमक लगा रहे हैं.
हम बूढ़े क्या हो रहे?
हर कोई अपनी जबान बदल रहा है.
परमीत सिंह धुरंधर