तीन – तलाक पढ़ गयी


दुनिया छोटी पर गयी अब तो
मेरी प्यास इतनी बढ़ गयी
अरे जब से तुझपे नजर मेरी पड़ गयी.

सब इतने दीवाने हैं महफ़िल में तेरे रूप पे
कितनो की बीबी उनको
तीन – तलाक पढ़ गयी.

परमीत सिंह धुरंधर

फिर कैसे ना Crassa मात खाए?


हुश्न है एक, हजारों अदाएं
फिर कैसे ना Crassa मात खाए?

कभी वक्षों पे जुल्फें,
कभी नितम्बों पे नागिन लहराए।
फिर कैसे ना Crassa मात खाए?

कभी नैनों से मदिरा छलके
कभी मृग सी मन बहकाए।
फिर कैसे ना Crassa मात खाए.

परमीत सिंह धुरंधर

हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?


तीक्ष्ण नैनों के बाण चलाकर
मृग-लोचन से मदिरा छलकाकर
वो तरुणी बोली, “हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?”

नितम्बों पे वेणी लहराकर
वक्षों पे लटों को बिखराकर
वो तरुणी बोली, “हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?”

शर्म-हया-लज्जा में अटखेली घोलकर
नवयौवन के रस में मादक पलकों के पट खोलकर
वो तरुणी बोली, “हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?”

जोबन के दंश को सहकर
सुडोल अंगों को आँचल में सहेजकर
वो तरुणी बोली, “हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?”

ह्रदय में मिलान की तस्वीर सजोंकर
विरह में प्रिय के जलकर
वो तरुणी बोली, “हे पथिक, तुम किस पथ के गामी हो?”

मेरे ह्रदय की गति को बढ़ाकर
वो तरुणी अपनी संचित मुस्कान बिखेरकर
बोली, “हे पथिक, किस पथ के गामी हो?”

परमीत सिंह धुरंधर


मदिरालय की अप्सराओं में


पनघट पे जो प्रेम मिला, वो कहाँ है इन मयखानों में?
सारा मेरा सागर सोंख गयी वो रात की पायजेबों में.

वो घूँघट से झाँकती, मुस्काती आँचल के ओट से
वो लचक कमर की अब कहाँ इन मदिरालय की अप्सराओं में.

परमीत सिंह धुरंधर

प्राचीन प्रेम पनघट पे


मेरे ह्रदय की गति को बढ़ाकर
वो तरुणी अपनी संचित मुस्कान बिखेरकर
बोली, “हे पथिक, किस पथ के गामी हो?”
किस ग्राम के वासी हो?
हे प्यासे, थोड़ा अपनी प्यास बुझा लो
ये वन नहीं, यहाँ तुम्हे भय नहीं
सो मृग सा अपनी पलकों को थोड़ा झपका लो.

तुम्हारे गोरे मुख को
ग्रास रहा है सूर्य अपने तप से.
और थकान मदिरा घोल रहा है
तुम्हारे नस- नस में.
अविवाहित हो क्या?
जो इतना उतावलापन है.
गठरी को धरा पे रख
इस वटवृक्ष के तले थोड़ा सुस्ता लो.
कहो तो घर से रोटी – मीठा ला दूँ
हलक के साथ – साथ, उदर की
जठराग्नि को भी मिटा लो.

परमीत सिंह धुरंधर

कैसा मिला बंधन?


तेरे गोरे – गोरे अंगों पे ये काले – काले नयन
ना जीने देते हैं, ना सोने देते हैं
ये मन को मेरे तूने कैसा दे दिया बंधन?

तेरे गोरे – गोरे वक्षों पे ये तीखे – तीखे नयन
ना पीने देते हैं, ना मरने देते हैं
ये जीवन को मेरे कैसा मिला बंधन?

परमीत सिंह धुरंधर

बनाये मुझे मवाली रे


ए गोरी तेरे अंग – अंग पे, खुदा ने कुदरत बरसाई रे
काली – काली आँखे तेरी, बनाये मुझे मवाली रे.

जी करता है चुम लूँ तुझको, बनके भौंरा हरजाई रे
कसी – कसी चोली तेरी, बनाये मुझे मवाली रे.

कटती नहीं राते अब, जब से देखि तेरी नाभि की गहराई रे
लहराती – बलखाती कमर तेरी, बनाये मुझे मवाली रे.

नींदें नहीं आती अब तो अकेले अपनी चारपाई पे
गदराई जवानी तेरी, बनाये मुझे मवाली रे.

परमीत सिंह धुरंधर